Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 183
________________ १७५ संतापसे तड़फड़ाता है, कभी लेनेवाले साहूकारोंके द्वारा बलपूर्वक छीने गये धनकी यातनासे वमन करनेवाले पुरुषके समान चेष्टा करता है, कभी " जानते हुए भी देखो यह ऐसी प्रवृति करता है" इस प्रकारकी लोकनिन्दासे जड़ताके (शीतरोगके ) समान मूर्ख कहलाने का कष्ट भोगता है, कभी हृदय और पसलीकी वेदनाके समान इष्टवियोग और अनिष्ट संयोगकी पीड़ासे 'हाय' 'हाय' करता है, कभी उस प्रमादीको मिथ्यात्वरूपी उन्मादका सन्ताप फिर भी हो जाता है । और कभी उत्तम अनुष्ठानरूपी पथ्यभोजनपर उसे अतिशय अरुचि हो जाती है । इस तरह यह अपथ्यसेवनमें आसक्त रहनेवाला जीव उक्त देशविरतिकी कोटिपर आरूढ हो जानेपर भी ऐसे २ विकारभावोंसे व्यथित रहता है । I . आगे कहा है कि, " तयाने भिखारीको अनेक विकारोंसे अधमुआ देखकर जान लिया कि, अपथ्य भोजनकी आसक्तिके कारण इसकी यह दशा हुई है । परन्तु इसको आकुलता हो जायगी, इस ख्याल से कुछ कहा नहीं । भिखारीने ही स्वयं कहा कि, मुझे इतनी अधिक लालसा है कि, उसके कारण मैं अपने आप इस भोजनको नहीं छोड़ सकता हूँ । इसलिये अवसे मुझे आप ही इस अपथ्यसेवनसे निरन्तर रोक दिया करें । तदयाने यह बात मान ली अर्थात् वह उसे अपथ्यभोजन करनेसे रोकने लगी और इस कारण उसकी दशामें थोड़ासा अन्तर पड़ गया अर्थात् उसके रोग कुछ शान्तसे हो गये । परन्तु जत्र तया समीप रहती थी, तब ही वह भिखारी अपथ्यको छोड़ता था, उसके नहीं रहनेपर नहीं । और तया अनेक जीवोंको जगानेके कार्य में आकुलित रहती थी, उसे जगह २ दूसरे जीवोंको प्रतिबोधित करनेके लिये जाना पड़ता था, 1

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