Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 154
________________ १४६ र्शनके होनेपर यह जीव भी धर्माचार्य महारानके विषयमें ऐसा ही चिन्तवन करता है। उस समय पदार्थों का वास्तविक स्वरूप ज़ान जानेसे यह जीव रौद्रताको (भीषणताको) छोड़ देता है, मदान्धतासे रहित हो जाता है, अतिशय कुटिलताको दूर कर देता है, गाढ़े लोभका त्याग कर देता है, रागकी उत्कटताको शिथिल कर देता है, किसीसे विशेष द्वेष नहीं करता है, और महामोहके दोपोंको दूर फेंक देता है। ऐसी अवस्थामें इसका मन प्रसन्न होता है, अन्तरात्मा निर्मल होता है, बुद्धिकी चतुराई बढ़ती है, सोना चांदी धन स्त्री आदि पदार्थों में परमार्थ बुद्धि नहीं रहती है, जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंमें आग्रह होता है कि, 'ये ऐसे ही हैं, और सम्पूर्ण दोष क्षीण हो जाते हैं। उस समय यह दूसरोंके गुणोंको जानता है, अपने दोपोंको देखता है, अपनी प्राचीन अवस्थाका स्मरण करता है, गुरुमहाराज जो उस समय इसके हितके लिये प्रयत्न करते हैं, उसे जानता है और इस प्रयत्नके माहात्म्यसे जो अपनी योग्यता हुई है, उसे समझता है । फल यह होता है कि, यह जो मुझ सरीखा जीव पहले अतिशय क्लिष्ट परिणामोंके कारण धर्मगुरु आदिके विषयमें भी नाना प्रकारके बुरे २ विकल्प करनेमें तत्पर रहता था, विवेकको पाकर सोचता है कि "अहो ! मेरी पापिष्ठताका, महा मोहान्धताका, अभाग्यताका, कृपणताका, और अविचारताका क्या ठिकाना है, जिससे मैंने अतिशय तुच्छ धनके प्रेममें चित्तको उलझाकर जो निरन्तर दूसरोंका उपकार करनेमें लवलीन रहते हैं, जिनके शरीरका दोषरहित सन्तोषसे ही पोषण होता है, जिनका अन्तःकरण मोक्षसुखरूप अविनाशी :धनका उपार्जन करनेमें तत्पर रहता है, जो संसारके विस्तारको तुषोंकी मुट्ठीके समान सर्वथा

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