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निर्द्वन्द्व आनन्दकी देनेवाली सर्वज्ञकी कही हुई, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानकी फलस्वरूपा विरतिको (त्यागको) धारण कर, नहीं तो परमार्थदृष्टिसे ये ज्ञानदर्शन भी निष्फल हो जायेंगे। क्योंकि चारित्रके विना अकेले दर्शन और ज्ञान मोक्षके साधक नहीं हैं। यह . भागपती विरति यदि ग्रहण की जाय और भले प्रकारसे पालन की जाय, तो सारे ही कल्याणोंका सम्पादन कर देती है। और पारलौकिक कल्याणोंको तो रहने दो-उनकी तो बात ही दूसरी है, इस लोकमें ही इन साधुओंको क्या तुम नहीं देखते हो, जो भगवानकी कही हुई विरतिमें ( महाव्रतोंमें) लवलीन रहते हैं और उसके कारण अनन्त अमृतरसका पान करने वालेके समान स्वस्थ रहते हैं। वे निरन्तर मनसे अनुभव करते हैं (1) उनकी कामवासना नष्ट हो जाती है, इसलिये. विषयोंकी अभिलापासे उत्पन्न होनेवाली उत्सुकता और प्रियविरहकी वेदनाको जानते भी नहीं हैं, कपायहीनताके कारण लोभसे उत्पन्न होनेवाले धनके कमाने, रसाने और नष्ट हो जानेके दुःखोंसे अनभिज्ञ हैं. तीनों भुवनके जीव उनकी बन्दना करते हैं
और अपने आत्माको वे संसारके पार पहुंचा हुआ मानते हैं । अभिप्राय यह कि, वे सब प्रकारसे आनन्दित रहते हैं। फिर ऐसे २ गुणोंवाली विरतिको आत्मशत्रुताके कारण तू क्यों ग्रहण नहीं करता है?" __ आगे कयामें कहा गया है कि, धर्मबोधकरके इस प्रकार वचन सुनकर यद्यपि दरिद्रीको उसपर (धर्मबोधकरपर ) विश्वास हुआ और यह निश्चय हो गया कि यह पुरुष मेरा अत्यन्त हितकारी है परन्तु अपने कुभोजनको छुड़ानेके वचन सुनकर वह विहल सरीखा हो गया और दीनतासे बोला कि, "हे नाथ! आप जो कहते हैं, उसे मैं सत्य समझता हूं, परन्तु केवल एक बात कहता हूं, उसे