________________
१६३
1
तीन लोकके चराचर जीवोंके पालक होनेके कारण वे ही वास्तविक नाथ हो सकते हैं । और जो उनके कहे हुए ज्ञान दर्शन और चात्रिप्रधान मतके अनुयायी हैं, उनके तो सर्वज्ञभगवान् नाथ हैं ही । इन्हीं भगवानकी सेवकाई अंगीकार करके महात्मागण केवल ज्ञानरूपी राज्यको पाकर सारे संसारको अपना सेवक बना लेते हैं । जो पापी जीव हैं, वे बेचारे इन भगवान्का नाम भी नहीं जानते हैं । भविष्य में जिनका कल्याण होनेवाला है, ऐसे भव्य वा भाविभद्र जीव ही स्वकर्मविवरसे ( कर्मोके विच्छेद होनेसे ) भगवानका दर्शन पाते हैं । तू इतनी सीढ़ियोंपर आरोहण कर चुका है, इससे तू ने भावसे तो भगवानको पा लिया है परन्तु उनकी प्राप्तिके जो तरतमता लिये हुए असंख्य गुणस्थान हैं उनपर तूने आरोहण नहीं किया हैं । सो उनके द्वारा तू भगवानको विशेषतासे प्राप्त कर लेवे, इसके लिये हमारा यह सब प्रयत्न है । क्योंकि भगवानको सामान्यतासे जाननेपर भी संसारी जीव सुगुरुओंकी सम्प्रदायके विना विशेषतासे नहीं जान सकते हैं ।" इस प्रकारसे गुरु महाराज जीवके आगे भगवानके गुणोंका वर्णन करते हैं, आपको उनके सेवक वतलाते हैं, जीवको समझाते हैं कि, तू विशेषतासे भगवान्को ही अपना नाथ समझ, भगवान्के विशेष २ गुण प्रगट करके उसके चित्तमें कौतुक उत्पन्न करते हैं, उन गुणोंके जाननेके लिये यह उपाय बतलाते हैं कि, तू रागादि भावरोगोंको कम कर और उक्त रोगोंके कम करनेके लिये ज्ञानदर्शनचारित्ररूप औपधियां बतलाते हैं तथा उनका क्षणक्षणपर सेवन करनेका उपदेश देते हैं "यह भी कहते हैं कि, रत्नत्रयके सेवन से भगवानकी आराधना होगा और उनकी आराधनासे महाराज्य के समान मोक्षपदकी प्राप्ति होगी ।
-
I