Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 172
________________ यद्यपि ग्रहण किये हुए गुणोंमें स्थिरता करनेवाले और परम हितकारी भगवान् धर्माचार्य इस प्रकारका उपदेश देते हैंत्याग आदिके विषयमें कुछ भी नहीं कहते हैं, तथापि जैसे वह भिखारी रसोईघरके स्वामीके वचन सुनकर अपने अभिप्रायके वशमे इस प्रकार बोला था कि. " हे नाथ ! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन है ? मैं अपने इस भीखके भोजनको किसी प्रकारसे भी नहीं छोड़ सकता हूं।" उसी प्रकारसे यह जीव भी चारित्रमोहनीय कर्मसे विहल होकर इस प्रकार चिन्तवन करता है कि, " अहो ! ये भगवान् मुझे बड़े भारी आडम्बरसे धर्मका उपदेश देते हैं, सो अवश्य ही ये मुझसे धन स्त्री विपय आदिका त्याग कराना चाहते हैं। परन्तु मैं धनादिको किसी प्रकारसे छोड़ नहीं सकता हूं। अतएव इनसे समक्षमें ही स्पष्ट कह दूं कि, आप इस विषयमें वारंवार उपदेश देकर अपना कंठ और तालु व्यर्थ ही सुखाते हैं।" यह सोचकर जीव अपना अभिप्राय गुरुके सम्मुख साफ २ कह देता है। ___ आगे रसोईघरके स्वामी धर्मबोधकरने इस प्रकार चिन्तवन किया कि, " मैंने तो इस भिखारीसे अपना भोजन त्याग करनेके लिये कहा भी नहीं है। केवल तीनों औषधियोंका सेवन करनेके लिये कहा है । फिर यह विना सम्बन्धकी बात क्यों कहता है ? शायद यह अपने अभिप्रायकी विडम्बनासे यही जानता है कि इनका यह सब वचनाडम्बर मेरे भोजनका त्याग करानेके लिये ही है।" फिर धर्मबोधकरने मुसकुराके कहा, "हे भद्र ! आकुलता मत कर, इस समय मैं तुझसे कुछ भी त्याग नहीं कराता हूं । इस कुभोजनका छोड़ना तेरे लिये ही हितकारी था, इसलिये मैं पहले छोड़ देनेके लिये कहता था। परन्तु यदि अब यह तुझे नहीं रुचता है, तो

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