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अर्थातजनको पायो महान
योग्य हों, उन्हींको ज्ञान दर्शन और चारित्र देना चाहिये, अयोग्योंको नहीं। क्योंकि अयोग्यको दिया हुआ रत्नत्रय स्वार्थका साधक नहीं होता है अर्थात् उससे कुछ लाभ नहीं होता है, बल्कि विपरीत होकर उलटा अनयोंका बढ़ानेवाला होता है। कहा भी है,
धर्मानुष्टान_तथ्यात्प्रत्यपायो महान् भवेत् ।
रोद्दुःखौघजनको दुःप्रयुक्तादिवीपधात् ।। अर्थात् धर्माचरणकी वितयतासे अर्थात् विरुद्धरूप पालनासे उसी प्रकार भयानक दुःख होते हैं, जैसेकी बुरी तरहसे वा अयोग्य रीतिसे प्रयुक्त की हुई औषधिके सेवनसे होते हैं।
हे भद्र ! भगवानका उपदेश उत्तम गुरुओंकी परम्परासे ज्ञात हुआ है और भगवान्के प्रसादसे ही हमने योग्य अयोग्य (पात्र अपात्र) जीवोंके लक्षण जाने हैं। ये ज्ञान दर्शन और चारित्र ही उन जीवोंके भेद करनेवाले हैं अर्थात् इन्हींसे जीवोंके योग्य अयोग्य साध्य असाध्य आदि भेद होते हैं, ऐसा भगवानने कहा है। जिन्हें पहिली ही अवस्थामें (प्रवेश होते ही ) ऊपर कहे हुए ज्ञान दर्शन और चारित्रपर प्रीति हो जाती है, और जिन्हें ज्ञान दर्शनादिके सेवन करनेवाले अपने ही जैसे जान पड़ते हैं तथा जो ज्ञानादिको सुखसे ही-सहन ही ग्रहण कर लेते हैं और जिनपर सेवन किये हुए ज्ञानदर्शनादि तत्काल ही अपनी विशेषता दिखलाते हैं-असर करते हैं, वे लघुकर्मी तथा आसन्नमोक्ष हैं, अर्थात् समझना चाहिये कि, उन्हें शीघ्र ही मोक्ष हो जायगा और जैसे अच्छी लकड़ी चित्र उकीरनेके योग्य होती है, उसी प्रकारसे उन्हें तीनों औपधियोंके योग्य समझना चाहिये । ऐसे जीव भावरोगोंका नाश करनेके लिये सुसाध्य हैं।"