Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 167
________________ १५९ है । इसलिये विद्वानोंको चारित्र प्राप्तिके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये। इस चारित्रके वलसे ही महात्मागण परीपहों और उपमगोंका सहन करते हैं. धनादिकोंका तिरस्कार करते हैं, रागादि दोषोंका दलन करते हैं, कर्मोको जड़से उखाड़ते है. संसार सागरको तिरते हैं और निरन्तर आनन्दमय मोक्षधाममें अनन्तकाल तक निवास करते हैं। और हमने जो तुझे नान दिया है, उससे क्या तेरा अज्ञान अंधकार नष्ट नहीं हुआ हैं! नया जो दर्शनकी प्राप्ति कराई है, उससे क्या तेरे विपर्यास(मिथ्यात्व) रूपी दैत्यका नाश नहीं हुआ है ! जिससे अत्र भी तू हमारे वचनांका विश्वास नहीं करके विकल्प कर रहा है । हे भद्र ! अब इन मंसारके बहानेवाले धनादि विषयोंको छोड़कर हमारी दयाके दिये हुए इस चारित्रको अंगीकार कर, निमसे नेरे सारे क्लेशोंका नाश हो जाय और शाश्वन मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ।" धर्मबोधकरके इस प्रकार बड़े प्रयत्नपूर्वक समझानेपर भी भिग्वारीनं कहा कि, "मैं अपने इस भोजनको नहीं छोड़ सकता हूं। यदि आप इसके रहते हुए अपना भोजन देना चाहते हैं, तो दीनिये " निप्पुण्यक भिखारीके समान यह जीव भी धर्मगुरुओंक वारंवार कहनेपर भी गलि (गरियाल, कायर) बैलके सदृश पैर फैलाकर कहता है कि, "हे भगवन् ! मैं धन विपयादिको किसी भी प्रकारसे नहीं छोड़ सकता हूं । इसलिये यदि इनके (धनादिके) रहते हुए ही कोई चारित्र बन सकता हो, तो दीजिये।" । भिखारीका ऐसा आग्रह देखकर धर्मबोधकरने विचार किया, कि, "अब इसको समझानेका और कोई दूसरा उपाय नहीं है । इसलिये यह भले ही अपना कुभोजन अपने पास रक्ते, परन्तु हमको

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