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पक्षियोंके आधारभूत होते हैं, उसी प्रकारसे इष्टवियोगादि भाव भी रुदनादिजनित आंसुओंकी जल तरंगोंसे आकुलित रहते हैं और मिथ्याती जीवोंके आधारभूत होते हैं अर्थात् विशेषतासे मिध्यात्व गुणस्थानवाले जीवोंके ही इष्टवियोगादि भाव होते हैं । नगरमें जो बडे २ बाग' और वन वर्णन किये गये हैं, वे संसार नगरमें जीवधारियोंके शरीर हैं, क्योंकि जैसे बाग परागके लोभसे भ्रमण करते हुए भ्रमरोंके उपद्रवसे त्रासके कारण होते हैं और वन नानाप्रकारके वृक्षों फलों फूलोंसे परिपूर्ण होनेके कारण अदृष्टमूल होते हैं अर्थात् उनके अन्तका पता नहीं लगता है, उसी प्रकारसे इन्द्रिय और मनरूपी भौंरोंका स्थान होनेसे तथा निजकर्म रूपी नानाप्रकारके वृक्षों फूलों और फलोंसे भरपूर होनेसे जीवों के शरीर भी दुःख का - रण और अदृष्टमूल होते हैं, अर्थात् पता नहीं है कि, जीवों के सायमें कबसे लगे हुए हैं । इस प्रकारसे जैसा अदृष्टनूलपर्यन्त नगर अनेक आश्चयोंसे भरा हुआ वतलाया है, उसी प्रकारसे यह संसाररूपी नगर भी अनेक चमत्कारोंका स्थान है ।
आगे उस नगरमें जो निष्पुण्यक नामका दरिद्री कहा गया है, सो इस संसारनगर में सर्वज्ञशासनकी (जैनधर्मकी) प्राप्ति होनेसे पहलेकी अवस्थामें मारा मारा फिरता हुआ मेरा जीव है । पुण्यहीनताके कारण इसका उस समयके लिये निप्पुण्यक नाम यथार्थ ही है । जैसे 1
१ मूल पुस्तकों 'चानरकाननैः' ऐसा अशुद्ध पाठ छपा है, इस कारण दृान्तमें उसका (पृष्ठ १६ पंचि ६ में) देवोंके विहार करने योग्य बगीचा ऐसा अर्थ किया गया है । परन्तु यहां दाष्टीन्तमें 'विशालारामकाननायन्ते जन्तुदेहाः' यह पाठ देखनेसे मालूम हुआ कि, पहले 'चारानकाननैः' होना चाहिये, जिसका अर्थ बाग और वन होता है । इसलिये १६ वें पृष्ठनें भी ऐसा ही सुधार लेना चाहिये।