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१३१ उद्देश्य फरके उसे सुनाते हुए सम्यग्दर्शनके गुणोंका वर्णन करते हैं। वह जितना दुर्लभ है अर्थात् कितनी कठिनाईसे प्राप्त होता है, यह प्रगट करते हैं, उसके पानेवालेको स्वर्गमोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा दिखलाते हैं और इस लोकमें भी वह चित्तको अतिशय विश्रान्तिका करनेवाला है, ऐसा जूनित करते हैं । यह सब उस सचेत हुए दरिदीको पानी पाने के लिये बुलानेके समान समझना चाहिये।
धर्मगुरुके उक्त वचन सुनकर इस जीवकी बुद्धि डाँवाँडोल हो जाती है । यह सोचता है कि, यह साधु अपने इस सम्यग्दर्शनके बहुन २ गुण वर्णन करता है, सो तो ठीक है । परन्तु यदि मैं सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लंगा, तो यह मुझे अपने वशमें आया हुआ समझाकर भोजन तथा धनादि मांगने लगेगा। तब मैं ऐसी ठगाईमें क्यों पई, जिसमें परलोकमें सुखादि मिलनेकी आशासे, पाये हुए धनादि पदार्य छोड़ना पड़ते हैं ? इस आत्मप्रवंचनासे मुझे क्या प्रयोनन है? ऐसा सोचकर वह सुनी अनसुनी करके उस सम्यदर्शनको अंगीकार नहीं करता है। इसे निप्पुण्यकके विषय जल पीनेके लिये बुलानेपर भी उसके पीनेकी इच्छा न करनेके समान समअना नाहिये।
तदनन्तर धर्मगुरु चिनार करते हैं कि, "फिर इसको बोध करनेका अर्थात, सुलटानेका और कौन उपाय होगा?" आगे पोलोचना करते २ अर्थात् सोचते २ वे अपने हृदयमें उपायका निश्चय कर लते हैं और फिर जब किसी अवसरपर वह साधुओंके उपाश्रयमें आनेवाला होता है, तब दूसरे लोगोंको उद्देश्य करके उसके आनेके पहलेहीसे धर्मोपदेशका प्रारंभ कर देते हैं:--"हे प्राणियो । दूसरे सत्र विकरसोंको छोड़कर सुनो । संसारमें अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष ये