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वर्णन कर चुके हैं; साक्षात् दिखलाई देते हैं, परन्तु आपके पीछेसे कहे हुए धर्मपुरुषार्थको तो हमने कहीं भी नहीं देखा है । इसलिये इसका जो स्वरूप हो, उसे वतलाईये ।" धर्माचार्य बोले:हे भद्र ! जो प्राणी मोहके मारे अन्धे हो रहे हैं, वे इस धर्मको नहीं देख सकते हैं। परन्तु विवेकियोंके लिये तो यह बिलकुल प्रत्यक्ष है । सामान्यतासे धर्मके तीन रूप दिखलाई देते हैं, कारण, स्वभाव और कार्य। अच्छे कार्योंका करना (सदनुष्ठान) कारण है, सो तो सबहीको दिखता है और स्वभाव है, सो दो प्रकारका है, एक साधव और दूसरा अनाश्रव । जीवमें शुभ कर्मपरमाणुओंके संग्रह होनेको साश्रव कहते हैं और पूर्वके कमाये हुए कर्मपरमाणुओंके झड़ जानेको अनाव कहते हैं । कर्मके इन दोनों स्वभावोंको योगीनन तो प्रत्यक्षरूपसे देखते हैं और हम जैसे पुरुप अनुमानसे देखते हैं । और सम्पूर्ण प्राणियोंमें जो सुन्दर विशेपताएं ( अच्छे सुखसाधनोंकी प्राप्ति ) दिखलाई देती है, सो धर्मका कार्य हैं। ये विशेषताएं प्रत्येक प्राणीमें होती हैं, इसलिये धर्मका कार्य वहुत अच्छी तरहसे दिखलाई देता है । इस तरहसे धर्मके ये कारण, स्वभाव और कार्यरूप तीन धर्म दिखलाई देते हैं, सो क्या तुमने नहीं देखे हैं, जो कहते हो कि, मैंने धर्मपुरुषार्थको कहीं नहीं देखा है। यह कारण स्वभाव और कार्यरूप तीसरा पुरुपार्थ ही धर्म कहलाता है । केवल इतनी विशेषता है कि, धर्मके जो तीन रूप हैं, उनमें पहला जो कारणरूप सदनुष्ठान है, उसे ही कारणमें कार्यका उपचार करके धर्म कहते हैं। जैसे कि समयपर पानी वरसते देखकर लोग कहते हैं कि, 'वर्षा चावल वरसा रही है । अभिप्राय यह कि, यथार्थमें वर्षा पानी बरसाती है, परन्तु वह पानी