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चार पुरुषार्थ हैं। कोई २ लोग मानते हैं कि, इनमेंसे अर्थ (धन) ही सबसे मुख्य पुरुषार्थ है।" इसी समय वह जीव भी आ पहुंचता है और व्याख्यान सुनने लगता है। धर्मगुरु आगे कहते हैं कि :--- "जो पुरुष धनके भंडारंसे शोभित होता है अर्थात् जिसके पास बहुतसाधन होता है, वह चाहे वृद्धावस्थाके कारण अतिशय जीर्णशरीर हो गया हो, परन्तु आश्रित पुरुषोंको पच्चीस वर्षके उन्मत्त जबान सरीखा प्रतीत होता है । अतिशय कायर डरपोक हो, तो भी उसकी प्रशंसा की जाती है कि, इन्होंने बड़े २ युद्धों में साहसको नहीं छोड़ा है और इनके बल तथा पराक्रमकी किसीसे तुलना नहीं हो सकती है । 'सिद्धमातृका' अर्थात् अ आ इ ई उ ऊ आदि वर्णमालाका उच्चारणमात्र करनेकी भी शक्ति न हो, तो भी बन्दीजन ( भाट ) विरद पढ़ते हैं कि, आपकी बुद्धि समस्त शास्त्रोंके अर्थका अवगाहन करनेमें चतुर है । अर्थात् आप सारे शास्त्रोंका 1 रहस्य जानते हैं । ऐसा बुरा रूप हो कि, शेठजी किसीसे देखे भी नहीं जाते हों, तो भी चाटुकार ( खुशामद) करनेवाले सेवक अनेक हेतु देकर सिद्ध करते हैं कि, आप काम - देवके भी रूपको जीतनेवाले हैं। प्रभावकी ( रौत्रकी) गंध भी न हो तो भी धनके लालची लोग कहते हैं कि, आपका प्रभाव समस्त संसारके पदार्थों को प्राप्त करों देनेवाला है । नीच घटदासी अर्थात् पानी भरनेवाली कहारिनके पुत्र हों, तो भी धनके प्रेमी लोग स्तुति करते हैं कि, आप अतिशय प्रसिद्ध और बड़े भारी ऊंचे वंश में उत्पन्न हुए हैं । बन्धुताका सात पीड़ी तक किसीसे कोई सम्बन्ध न हो, तो भी सब लोग अपना परमबन्धु ( कुटुम्बी ) समझकर सत्कार करते हैं । यह सब भगवान धन - देवकी लीला है । और 1