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किया कि :- "हे प्राणियों ! और कोई २ लोग ऐसा मानते हैं कि, काम ( पांचों इन्द्रियोंके विषयों का सेवन ) ही सबसे प्रधान पुरुषार्थ है । उनके विचार इस प्रकार के होते हैं कि, जबतक पुरुष सुन्दर स्त्रियोंके मुखकमलोंके परागका स्वाद लेनेके लिये भ्रमरसरीखी क्रीड़ा नहीं करता है, तब तक वह वास्तवमें पुरुष नहीं हो सकता है । क्योंकि धन जोड़नेका, नाना प्रकारकी कलाएं सीखनेका, पुण्य कमानेका, और इस मनुष्य जन्मके पानेका, वास्तवमें काम ही श्रेष्ठ फल है । क्योंकि यदि ये सब बातें अच्छी भी हुई, अर्थात् धनादि बहुतसा भी हुआ, परन्तु कामकी प्राप्ति नहीं हुई, तो उनका होना किस कामका ? बल्कि जिन लोगोंका चित्त कामसेवन करनेमें तयार रहता है, उन्हें उस कामके साधनभूत धन, सोना, स्त्रियाँ आदि . पदार्थ उनके योग्य होनेसे अपने आप ही आकर प्राप्त हो जाते हैं। . इस बातको बाल गोपाल सत्र ही जानते हैं कि, 'संपद्यन्ते भोगीनां भोगाः' अर्थात् जो भोगी हैं, उन्हें भोग मिल ही जाते हैं । और भी कहा है कि:--
स्मितं न लक्षण वचो न कोटिभि
र्न कोटिलक्षैः सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यैरयोपगूहनं
न कोटिकोट्यापि तदस्ति कामिनाम् ॥ अर्थात् -- दूसरे पुरुषोंको जो मन्द मुसक्यान लाख रुपये खर्च करनेसे प्राप्त नहीं हो सकती है, जो मीठा बोल करोड़ों रुपयोंसे भी श्रवणगोचर नहीं हो सकता है, और जो विलास ( नखरा ) युक्त कटाक्ष लाखों करोड़ों रुपयोंसे भी निक्षिप्त नहीं हो सकता है, और जो निष्ठुर-ताका आलिंगन कोटिकोटी (कोड़ाकोड़ी) रुपयोंसे भी लभ्य नहीं हो : सकता है, कामी पुरुषोंको वह सब सहज ही प्राप्त हो सकता है ।