________________
कभी अपने
कु
ने कठिनाईसे भरखके मिल जान
बैठता है कि, मैं चक्रवर्ती हो गया हूं । यदि कभी किसी खेतके एक टुकड़ेका मालिक हो जाता है, तो जानता है कि मैं महामांडलिक राजा हो गया हूं । कभी कोई व्यभिचारिणी कुलटा स्त्री मिल जाती है, तो उसे देवांगना समझ लेता है । कभी अपने किसी २ अंगके विलकुल वेडौल होनेपर भी आपको कामदेव सरीखा सुन्दर मानता है। कभी चांडालोंके मुहल्ले सरीखे अपने परिवारके लोगोंको इंद्रके परिजनोंके समान मान लेता है। कभी तीन चार हजार, तीन चार सौ, अथवा तीन चार वीसी रुपयोंके लाभको ही समझ लेता है कि मैं कोट्याधीश हो गया हूं। कभी पांच छह द्राणे ( ३२ सेर वजनका माप ) धान्यके पैदा हो जानेको कुबेरकी सम्पत्तिके समान मान लेता है। कभी अपने कुटुम्बके भरणपोषणको ही महाराज्यका पा लेना समझता है। कभी केवल अपने कठिनाईसे भरे जानेवाले पेटके भर लेनेको ही बड़ा भारी उत्सव मान लेता है। कभी भीखके मिल जानेको ही जीवनका मिल जाना निश्चय कर लेता है । और कभी शब्दादि विषयोंके भोगने लवलीन हुए किसी राजाको अथवा अन्य किसी भाग्यवान् पुरुपको देखता है, तो "यह इन्द्र है, यह देव है, यह वन्दनीय है, यह पुण्यवान है, यह महात्मा है, यदि इसके सरीखे विषय मुझको प्राप्त होवें, तो मैं भी उन्हें भोगू।" इस प्रकार चिन्ता करता हुआ व्यर्थ ही क्लेश करता है।
फिर इन विचारोंसे विडम्बित हुआ जीव उक्त विषयोंकी प्राप्तिके लिये राजाओंकी सेवा करता है, उनकी उपासना करता है, सदा नम्रता प्रगट करता है, उनके अनुकूल उन्हीं जैसा बोलता है अर्थात् 'जी हां जी हां' किया करता है, स्वयं चाहे दुखी हो, परन्तु उनके हंसनेपर हँसता है, निज पुत्रके उत्पन्न होनेसे आपको चाहे अतिशय