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रूपसे मिथ्यात्वादि परिणाम कारण हैं। अर्थात् बीज वृक्षके समान मिध्यात्वसे कर्म और कम से मिध्यात्वादि परिणाम होते रहते हैं । ये कर्म दो प्रकार के हैं, कुशलरूप और अकुशलरूप अर्थात् शुभरूप और अशुगरूप । इनमेंसे जो कुशलरूप हैं, उन्हें पुण्य तथा धर्म कहते हैं और जो अकुशलरूप हैं, उन्हें अधर्म तथा पाप कहते हैं । सुखों का अनुभव पुण्यके उदयसे और दुःखोंका अनुभव पापोंके उदयसे होता है । इन पुण्य और पापकी ही जो सनंतभेदरूप न्यूनाधिकता (तरतमता ) होती हैं, उसीसे यह उत्तम, मध्यम, और अधन आदि अनंतभेदरूप विस्मयकारी संसार उत्पन्न होता है । अभिप्राय यह है कि, संसार में जो अधिक सुखी, कम सुखी, अधिक दुखी, कम दुखी आदि नानाप्रकारके जीव दिखलाई देते हैं, वे सत्र इन पुण्य और पापकी न्यूनाधिकतासे हुए हैं । जिस समय यह जीव धर्मानार्थ महाराजके उक्त वचन सुन रहा था, उस समय इसे अनादिकालकी कुवासना के कारण आगे कहे हुए अनेक कुविकल्प उत्पन्न हुए थे:- यह संसार एक अंडेमेंसे उत्पन्न हुआ 'है', अथवा ईश्वरका बनाया हुआ है, अथवा ब्रह्मा विष्णु आदिने इसे बनाया है, अथवा यह एक प्रकृतिका विकार है, अथवा क्षण क्षण में क्षय होनेवाला है, अथवा यह पंचस्कन्धात्मक जीव पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, अथवा विज्ञानमात्र हैं, अथवा यह जो कुछ है, सो सत्र शून्यरूप है", अथवा कर्म कोई पदार्थ ही नहीं है", अथवा यह सत्र जगत् महादेवके वशसे नानारूप होता रहता है" । ये सत्र वि
१ स्मार्तमन | २ नैयायिक । ३ पौराणिक । ४ सांख्य । ५ बौद्धका एक भेद । ६ रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पांच स्कन्ध हैं । ७ पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश । ८-९-१० बौद्धोंके तीन भेद | ११ चार्वाक | १२ श्रयदर्शन |