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धर्म ही दिनयवान परिकर ( नौकर चाकर) है, धर्म ही राजापना है, धर्म ही चक्रवतीपना है, धर्म ही देवपना है, धर्म ही इन्द्रपना है, धर्म ही अपनी सुन्दरतासे त्रिभुवनको पराजित करनेवाला
और जरामरणके विकारोंसे रहित वज्र सरीखा सुदृढ़ शरीर है, धर्म ही समस्त शानोंके अभिप्रायोंके सुंदर शब्द सुननेवाले कान हैं, धर्म ही तीनों लोकोंको देख सकनेवाले कल्याणदर्शी नेत्र हैं, धर्म ही मनको प्रसन्न करनेवाली अमूल्य रत्नोंकी राशियां हैं, धर्म ही चितको आल्हादित करनेवाले और विपघातन आदि आठ गुणोंके धारण करनेवाले सोनेका देर है, धर्म ही शत्रुओंका नाश करनेवाली चतुरंगिनी सेना है, और धर्म ही अनंत रतिसागरमें अवगाहन करानेवाले विलासस्थान हैं। अधिक कहनेसे क्या विघ्नरहित अनन्त दुखोका कारण एक धर्म ही है और कोई दूसरा नहीं है।"
जब इस प्रकारसे मधुरभापी भगवान् धर्माचार्य उपदेश देते हैं, तब इस जीवका चित्त कुछेक आकर्पित होता है, और उसके कारण नेत्र उघाड़ता है, मुखकी प्रसन्नता दिखलाता है, विकथा आदि दूसरे विक्षेपोंको-झगड़ेको छोड़ देता है, कुछ सोचता हुआ मुसकुराता है और कभी चुटकी बनाने लगता है। उस समय आचार्य भगवान इसे कुछ रसमें पैठा हुआ समझकर इस प्रकार कहते हैं:-"वह धर्म जिसकी मैंने अभी प्रशंसा की है, चार प्रकारका है-दानमय, शीलमय, तमोमय और भावनामय । इसलिये हे भाई! तू चाहता है, तो इन चारों ही प्रकारके धर्मीका तुझे पालन करना चाहिये । जितना तुझसे बन सके, उतना सुपात्रोंको दान दे, सारे पापोंको छोड़ दे (सकलचारित्र), अथवा स्थूल पापोंको छोड़ दे (विकलचारित्र ) अथवा हिंसासे, झुट बोलनेसे, चोरी करनेसे, परस्त्रीसेवनसे, अमर्यादित