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फिर वहुत विचार करके धर्मबोधकरने निश्चय किया कि, "इस वेचारेका यह दोप नहीं है। यह बाहर और भीतर सर्वत्र नाना रोगोंसे घिर रहा है, इसलिये उनकी वेदनासे विहल होकर कुछ भी नहीं सोच समझ सकता है। यदि यह नीरोग होता, तो जब जरासे भीखके बुरे भोजनके मिल जानेसे सन्तुष्ट हो जाता है, तब इस अमृतके समान मीटे परमान्नको क्यों नहीं ग्रहण करता?" धर्माचार्य महाराजका भी पर्यालोचना करनेसे ऐसा ही विचार होता है कि, यद्यपि यह जीव विषयादिकोंमें गीधता है, चुरे मार्गसे चलता है,
और दिया हुआ उपदेश नहीं मानता है, परन्तु इसमें इस वेचारेका दोप नहीं है-मिथ्यात्वादि भावरोगोंका दोप है । उनके कारण इसकी चेतना नष्ट होगई है, इससे यह कुछ भी नहीं जान सकता है। यदि यह उक्त मिथ्यात्वादिरोगोंसे रहित होता, तो अपने हितको छोड़कर अपना अहित करनेमें क्यों प्रवृत्त होता ! ___ आगे वह धर्मबोधकर फिर विचार करने लगा कि:--"यह मिखारी नारोग कैसे हो ! इसका विचार करते हुए उसे स्मरण हो आया कि, अहो ! इसके रोगोंके दूर करनेका उपाय भी तो है ! मेरे पास तीन बहुत अच्छी औषधियां हैं। उनमें एक विमलालोक नामका उत्कृष्ट अंजन है, जो विधिपूर्वक आँजनेसे नेत्रके सारे रोगोंको नाश करता है और उन्हें सूक्ष्म, दूरवर्ती, भूतकालवी और भविष्यतकालवर्ती पदाथाके भी देखनेमें चतुर बना देता है। दूसरा तत्त्वमीतिकर नामका तीर्थजल है, जो विधिपूर्वक पीनेसे शरीरके सारे ही रोगोंको हलका कर देता है, दृष्टिको पदार्थके यथार्थ स्वरूपके ग्रहण करनेमें चतुर बनाता है, और उन्मादको तो अवश्य ही नष्ट कर देता है। और तीसरा इसी कन्याका लाया हुआ महाकल्याणक नामका