________________
११८ जैनमुनि भी मेरी सम्पत्तिको हरण करनेकी इच्छा करते हैं । अथवा 'अतिशय रमणीय विहार वनवाओ, उनमें बहुश्रुत (ज्ञानी) साधुओंका निवास कराओ, संघकी पूजा करो, भिक्षुओंको दक्षिणा दो, अपनी सम्पत्तिको समस्त संघसम्बन्धी भंडारमें रख दो, संघके कोटोंमें ही अपने धान्यके संग्रहको रख दो, संघसम्बन्धी संज्ञातिमें (गोकुलमें?) ही अपने चौपाये समर्पण कर दो, और बुद्धधर्मके संघके अगुआ हो जाओ। ऐसा करनेसे तुम्हें शीघ्र ही बुद्धपदकी प्राप्ति हो जायगी।' इस प्रकार वाचालतासे रचे हुए अपने मायाजालरूप शास्त्रोंसे जिस प्रकार रक्तभिक्षु अर्थात् वौद्धसाधु विसंवाद (ठगाई) करते हैं, उसी तरह ये जैनसाधु भी विसंवाद करके मेरी सारी सम्पत्तिको लेना चाहते हैं । अ. थवा 'संघकी ज्योनार कराओ, ऋपियोंको जिमाओ, मीठे मीठे खाद्य पदार्थ देओ, और मुखको सुगन्धित करनेवाले सुन्दर द्रव्य भेंट करो, दान ही गृहस्थका परम धर्म है क्योंकि इसीसे संसारसे तरण होता है। इस प्रकारसे लुभाकरके अपने शरीरको पुष्ट करनेमें तत्पर रहनेवाले दिगम्बरके समान ये जैनसाधु मेरा धन हरण करके खिसक जावेंगे । यदि ऐसा नहीं होता, तो ये मेरा इतने विस्तारसे धर्मकथन करनेरूप आदर क्यों करते? तात्पर्य यह है कि, ये श्रमण
* यद्यपि ग्रन्थकती वेताम्बरसम्प्रदायके अनुयायी हैं, इसलिये उनका दिगम्बरसम्प्रदायके विरुद्धमें लिखना स्वाभाविक है। परन्तु दिगम्बर जैसी वीतरागवृत्तिमें शरीरपोपणतत्परताका, मिष्टभोजनकी लोलुपताका और मुखसुगंधिकी आवश्यकताका आक्षेप सर्वथा ही असंगत प्रतीत होता है। बल्कि निष्पक्ष दृष्टिसे देखा जाय, तो दिगम्वरवृत्तिकी अपेक्षा श्वेताम्बरवृत्तिमें ऐसावातोंकी अधिक संभावना हो सकती है। तव यह आक्षेप वेदानुयायी परमहंसोंके विषयमें तो नहीं है, जो कि दिगम्वरमुनियों के समान ही नग्न रहते हैं। अनुवादक.।