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भीतर बैठी हुई दिसलाई देवें, तो उन्हें वास्तवमें भीतर न समझकर बाहिर ही समझना चाहिये । क्योंकि यह भगवत्प्रणीत शासननन्दिर भावसे ही प्राप्त हो सकता है। इसमें बाहिरी छाया मात्रसे प्रविष्ट हुला जीव वास्तवमें प्रविष्ट हुला नहीं कहला सकता है। अभिप्राय यह है कि, जैनियों सरीती बाहिरी क्रियाएं करनेसे कोई सच्चा जेनी नहीं हो सकता है। जैनी होनेके लिये प्रद्धानरूप उत्तम भाव होना चाहिये। __नौर जिस प्रकार उस राजभवनको उपमारहित शब्द स्पर्शादि 'विषयोंके भोगनेसे सुन्दर बतलाया है, उसी प्रकारसे इसको भी जानना चाहिये । जितने इन्द्र हैं, वे सब इत्त नन्दिरके भीतर हैं। जोर जो बड़ी २ ऋद्धिके धारण करनेवाले बड़े २ देव हैं, वे भी जिनशासनमंदिरसे बाहिर नहीं हो सकते हैं। ऐसी भवत्यामें जब कि बड़े २ इन्द्र बौर ऋद्धिधारी देव इस मन्दिरमें रहते हैं, तब इसमें उपमारहित शब्दादि विषयोंके नोगोंकी सुन्दरता होना असंभव नहीं है। इस क्यनसे यह बात विशेष सम लेना चाहिये कि, जितने भोग हैं, वे सब पुण्यके उदयसे प्राप्त होते हैं। और वह पुण्य दो प्रकारका है, एक पुण्यानुवन्धी और दूसरा पापानुबन्धी । उनमेंसे जो शब्दादि उपभोग पुण्यानुवन्धी पुण्यके उदयसे प्राप्त होते हैं, वे तो उपनारहित कहला सकते हैं, क्योंकि अच्छी तरहसे संहित (संस्कार किये हुए ) तया मनोहरं पथ्य भोजनके समान उनकता परिपाक वा परिणाम अच्छा होता है। और उनके भोगनेसे परिणाम विशेष उज्वल होते हैं, तथा ऐसे सुंदर परिणामोंवाला जीव उनमें प्रीति नहीं करता है, बल्कि उनको भोगते हुए भी विशेष रागभाव न होने के कारण पूर्वनें बाँधे हुए