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तत्र इसपर भगवानकी कृपा होती ही है । क्योंकि भगवानकी कृपा के विना यह मार्गानुसारी (जैनधर्मानुयायी ) नहीं हो सकता है । और उनकी कृपासे ही उन भगवानके विषयमें इसका यथार्थ आदरभाव होता है - और तरहसे नहीं। क्योंकि इस विषय में स्वकर्मों के क्षय उपशम और क्षयोपशमकी प्रधानता नहीं है। यह जीव ऐसी शोचनीय अवस्था में पड़ा हुआ है, इस बातको सोचकर भगवानने इसको विशेषता से देखा, ऐसा कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिनेंद्र भगवान् अचिन्त्य शक्तिके धारक हैं, तथा परोपकार करनेमें ही संदा लवलीन रहते हैं, इसलिये वे इस जीवको मोक्षमार्ग प्राप्त कराने में मुख्य कारण हैं। यहांपर शास्त्र के अनुसार ऐसा विचार करना चाहिये कि, यद्यपि शरीररहित होकर भी परमात्मा समस्त नगतके जीवोंपर दया करने में समर्थ है, तो भी वह जीवोंके भव्यत्व, कर्म, काल, स्वभाव और भांग्य आदि सहकारी कारणोंका विचार करके जगत्का अनुग्रह करनेमें प्रवृत्त होता है, इसलिये एक ही समयमें सारे जीव संसारसे पार नहीं हो सकते हैं। अभिप्राय यह है कि, प्रत्येक जीवको एक ही समयमें उक्त भव्यत्व कर्मत्व आदि सहकारीकारण नहीं मिल सकते हैं. इसलिये वे सबके सब एक साथ मुक्त नहीं हो सकते हैं । इस तरह समस्त जीवों पर दया करने में समर्थ होनेके कारण जिनेंद्रदेवकी दृष्टि इस जीवपर जिसका कि भविष्यमें कल्याण होनेवाला है और जो भद्रपरिणामी है, पड़ती ही है ।
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आगे. जिस तरहं " भोजनशाला के अधिकारी धर्मवोधकरने उस भिखारीपर महाराजकी दृष्टि पड़ती हुई देखी" ऐसा कहा गया है, उसी प्रकारसे धर्मका बोध (ज्ञान) करनेमें तत्पर होनेके कारण जो 'धर्मबोधक' इस यथार्थ नामको धारण करनेके योग्य हैं, और संथे