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और जिनेन्द्रके शासनमें रहनेवाले भव्यजीव स्वाभाविक हप्की अ-. धिकतासे प्रसन्न रहते हैं, इसलिये क्षण क्षणमें पांच प्रकारका स्वाध्याय करनेरूप गाना गाते हैं, आचार्यादिकोंका दश प्रकार वैयावृत्य करने रूप नृत्य करते हैं, जिनेन्द्रदेवके जन्माभिषेक, समवसरण, पूजन, यात्रा आदि शुभकार्य करनेरूप नाच कूद करते हैं, परधर्मके वादियोंके जीतनेमें पढ़ता दिखलाते हुए चित्तको आनन्दित करनेवाली सिंहनाद सरीखी गर्जना करते हैं, और किसी २ समय जिनभगवानके गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पांचों महा कल्याणकोंके प्रसंगपर आनन्दकारी मर्दल आदि वाजित्र बनाते हैं। यह मुनीन्द्रोंका शासन जो कि निरन्तर आनन्दमय और सारे संतापोंसे रहित है, इस जीवको उत्तम भावपूर्वक पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है। यह बात इसके संसारभ्रमणके सद्भावसे ही अच्छी तरहसे निश्चित होती है । यदि सर्वज्ञ शासनकी प्राप्ति हुई होती, तो इसे संसारमें नहीं भटकना पड़ता। और अच्छे परिणामपूर्वक यदि जिनशासनकी प्राप्ति हुई होती, तो इसका पहले ही मोक्ष हो जाता।
पूर्वोक्त कथामें जिस राजभवनका वर्णन किया गया है, उसके पहले दो विशेषण कहे गये हैं। उनमेंसे एक तो यह कि, वह अहष्टपूर्व और अनन्तविभूतिसम्पन्न है, सो इस सर्वज्ञशासनरूप मन्दिरमें घटित करके दिखला दिया गया । अब जो दूसरा विशेषण यह है कि, वह राजभवन राना, मंत्री, सुभट, नियुक्तक, कोटपाल आदि लोगोंसे भरा हुआ है, सो उसको इस प्रकारसे घटित करना चाहियेः__ भगवानके शासनमन्दिरमें राजाओंके स्थानमें आचार्य समझना चाहिये । क्योंकि अन्तरंगमें जलते हुए महातपके तेजसे उनके रागा
३ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकारके साधुओंकी सेवा करना दशप्रकारका वैयावृत्य है।