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का अर्थ 'अपने कर्म' होता है और 'विवर का 'विच्छेद' वा 'नाश होता है । अतएव अपने काँका विच्छेद ही उस मन्दिरके भीतर जाने देनेवाला यथार्थ द्वारपाल हो सकता है । यद्यपि उस मन्दिरके द्वारपर राग द्वेष मोह आदि और भी बहुतसे द्वारपाल रहते हैं, परन्तु वे सब इस जीवके रोकनेवाले ही हैं, प्रवेश करानेवाले नहीं हैं । उस द्वारपर यह जीव अनन्त वार पहुंचा है, परन्तु उन्होंने इसे वरावर रोका है, कभी भीतर नहीं जाने दिया है। यद्यपि कभी २ वे राग द्वेष मोह आदि द्वारपाल भी जीवको भीतर जाने देते हैं, परन्तु उनके द्वारा भीतर पहुंचा हुआ जीव यथार्थमें पहुंचा हुआ नहीं हो सकता है । इससे यह अभिप्राय निकलता है कि यद्यपि राग द्वेष मोह आदिसे व्याकुल रहनेवाले अनेक जीव कभी २ यति धावक आदिके चिह्नोंको धारण कर लेते हैं, परन्तु वास्तवमें उन्हें सर्वनशासन मन्दिरसे बहिर्भूत ही समझना चाहिये । अर्थात् यति धावक होकर भी वे मोक्षमार्गको नहीं पा सकते हैं। इसके पश्चात् स्वकर्मविवर द्वारपाल उस राजमहलकी भूमितक पहुंचे हुए जीवको ग्रन्थिभेद कराके अर्थात् मिथ्यात्वको छुड़ाकर सर्वज्ञशासनरूप मन्दिरमें प्रवेश कराता है, इस प्रकारसे युक्त समझना चाहिये। ___ आगे"भिखारीने उस अष्टपूर्व (जैसा पहले कभी नहीं देखा था), अनन्तविभूतिसम्पन्न, राजाओं मंत्रियों कामदारों कोटपालों वृद्धा स्त्रियों और सुभटोंसे भरे हुए, विलास करती हुई विलासिनी स्त्रियोंसे युक्त, उपमारहित शब्दगंधादि विषयोंके भोगनेसे सुन्दर
और निरन्तर उत्सवमय रानभवनको देखा" ऐसा कहा है। उसी प्रकारसे यह जीव भी इस संसारनगरमें वज्रके समान दुर्भच और जो पहले कभी छूटी नहीं थी, ऐसी कौकी क्लिष्ट ग्रन्थिको अ