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(भैली) वैतरणी नदीमें तिराया जाता है, और तरवार सरीखे पैने पत्तेवाले वनोंमें खंड खंड किया जाता है ।
उन नरक में ऐसी भूख होती है कि, संसारमें जितनी पुद्गलराशि है, यह सत्र भक्षण कर ली जावे, तो भी शान्त नहीं होती है। प्यास ऐसी लगती है कि, सारे समुद्रांका जल पान करनेसे भी नहीं बुझती है। वहां जीव शीतकी कठिन वेदनासे पराजित होता है, अर्थात् बहुत दुखी होता है, अतिशय गर्मी से क्रेशित होता है और दूसरे नारकी इसे नाना प्रकार के दुःख देते हैं । उस समय यह अतिशय दुःखी जीव व्याकुल होकर, "हे माता ! रक्षा करो । हे नाथ ! मुझे बचाओ !" इस प्रकार व्याकुल होकर रोता हुआ पुकारता है । परन्तु वहां पर इसके शरीरकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं होता हैकोई इसे बना नहीं सकता है।
यदि किसी तरह यह नरकोंसे भी निकलता है, तो तिथेच गतिमें जन्म लेता है, और वहां भी बहुत दुखी होता है। वजन लादा जाता है, लकड़ी आदिसे पीटा जाता है, कान पूंछ छेदे जाते हैं, कीटांके समूह काटते हैं, भूख सहता है, प्यासों मरता है, और नाना प्रकारकी पीड़ाओं से दुखी होता है ।
यदि कदाचित् तिर्यच गति से निकल कर यह जीव मनुप्यभव पाता है, तो उसमें भी अनेक दुःखोंसे पीड़ित होता है । मनुष्य गतिमें रोगां समूह लेशित करते हैं, बुढ़ापेके विकार जरजरा करते हैं, दुर्जन बहुत ही खेदित करते हैं, प्यारोंके वियोग विहल करते हैं, अ"निष्टों के संयोग रुलाते हैं, धनहरण अर्थात् चोरियां कंगाल कर देती हैं, अपने कुटुम्बियों मरण व्याकुल करते हैं और नाना प्रकारके भ्रम बावला बना देते हैं ।