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क्या है और ग्रहण करने योग्य क्या है, इसका भेद नहीं जानता है और अपने तथा पराये गुणदोपोंके कारण क्या हैं, यह नहीं समझ सकता है। फिर कुतकोंसे श्रान्तचित्त होकर ( थककर ) यह जीव विचारता है कि,-परलोक नहीं है, बुरे भले कर्मोंका फल नहीं मिलता है, आत्माका अस्तित्व ही संभव नहीं है, सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं हो सकती, और इसलिये उसका उपदेश किया हुआ मोक्षमार्ग भी घटित नहीं हो सकता है । जब इसके हृदयमें ऐसे अतत्त्व बैठ जाते हैं, तब यह जीवोंको मारता है, झूठ बोलता है, पराया धन चुराता है, परस्त्रियों के साथ कामसेवन करता है, परिग्रहका संग्रह करता है, इच्छाका परिमाण नहीं करता है कि, मैं अमुक २ • पदार्थों का ही सेवन ग्रहण करूंगा, मांस खाता है, शराब पीता
है, अच्छे उपदेशोंको नहीं मानता है, खोटे मार्गका प्रकाश करता। है, जो वन्दना करने योग्य हैं, उनकी निन्दा करता है, जो निन्दा करने योग्य है उनकी वंदना करता है, अपने कामोंको गुणरूप ( अच्छे ) समझता है, पराये कामोंको दोषरूप (बुरे) समझता है और दूसरोंकी निंदा करता है, इस तरह सारे पापोंका आवरण करता है पश्चात् ऐसे दुराचारोंसे यह जीव अधिक स्थितिवाले बहुतसे कर्मोंको बांधता है और उनके कारण नरकोंमें जाकर पड़ता है। वहां अपने पापोंसे प्रेरित हुए महापापी असुरोंके द्वारा कुंभीपाकमें अर्थात् तैलकी कढ़ाहीमें पकाया जाता है, करोंतसे चीरा जाता है, वज्र सरीखे कांटोंवाले सेमरके वृक्षोंपर चढ़ाया जाता है, संडासीसे (संसीसे) मुंह फाड़कर उबलता हुआ तप्त सीसा पिलाया जाता है, अपने शरीरका मांस खिलाया जाता है, अत्यन्त गर्म भाडोंमें भूना जाता है, पीब, वसा (चर्बी,) रक्त, मल, मूत्र, और आंतोंसे कलुषित