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होता है । और ऊपर कहे हुए भक्ष्य, अभक्ष्य,पेय अपेय आदिका जो निश्चय नहीं होने देता है ऐसे महातमरूप मोहको और जो परलोक नहीं है, शुभ अशुभ कर्मोंका फल नहीं मिलता है, इत्यादि मिथ्यात्वके भेद कहे हैं उन्हें, अभीतक नहीं जानता है। अभिप्राय यह कि, मोह और मिथ्यात्व दोनोंका ही स्वरूप नहीं जानता है। इन दोनोंकी अर्थात् मोह और मिथ्यात्वकी उत्पत्तिमें दो कारण हैं, एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग । कुतर्क ग्रन्थादि तो वाह्य सहकारी कारण हैं और राग द्वेष मोह आदि अन्तरंग उपादान कारण हैं। इसलिये पहले कहे हुए सारे अनर्थ वास्तवमें इन्हीं दोनों के उत्पन्न किये हुए समझना चाहिये।
यद्यपि कुशास्त्रसंस्कारादि अनर्थ उत्पन्न करनेके कारण हैं, परन्तु वे कादाचित्क हैं अर्थात् उनका योग कभी २ जुड़ता है। पर राग द्वेषादि ऐसे नहीं हैं, वे अज्ञान और मिथ्यात्व भावोंको निरन्तर । उत्पन्न करते हैं। इसके सिवाय कुशास्त्रोंके उपदेशका सुनना आदि. होनेपर भी अनर्थ होनेका नियम नहीं हैं, हो और नहीं भी हो। इस प्रकारसे इसमें व्यभिचार है, अर्थात् नियम नहीं है। परंतु रागादि भाव ऐसे हैं कि, उनके कारण महा अनर्थोंके गड्ढेमें पड़ना ही पड़ता है। इसमें व्यभिचार नहीं है-नियम है । क्योंकि रागद्वेषसे जीता गया जीव अज्ञानरूपी घोर अंधकारमें प्रवेश करता है, नाना प्रकारके मिथ्यात्वके भेदोंको धारण करता है, सैकड़ों बुरे काम करता है, और उनसे बड़े भारी कर्मोंका संचय करता है। पश्चात् उन कर्मोंका विपाक होनेपर अर्थात् उनके उदयमें आनेपर कभी देवोंमें उत्पन्न होता है, कभी मनुष्योंमें उपजता है, कभी पशु होता है और कभी महानरकॉमें जाकर पड़ता है। तथा उक्त चारों गतियोंमें जैसा कि पहले