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भक्तिग्राह्या यतः स्मृताः" महात्मा पुरुष भावपूर्वक भक्तिसे ही ग्राह्य होते हैं । अर्थात् उत्तम परिणामोसे सेवा करनेसे ही महात्मा प्रसन्न होते हैं। हे माई ! पहले भी रोगपीड़ित अनन्त प्राणी इस राजेश्वरको स्वामीमावसे स्वीकार करके प्रसन्न और कृतकृत्य हो चुके हैं। तेरे रोग बहुत बलवान हैं, साथ ही तेरा मन अपथ्य सेवन करनेमें भी बहुत आसक रहता है। इससे विना वड़ भारी यत्नके तेरे रोगोंका नाश हो जाना समझमें नहीं आता है । अतएव हे वत्स! प्रयत्नशील होकर अपने मनको निश्चल करके तू इसी विस्तृत राजमन्दिरमें निराकुलतासे रह और इस कन्याके हाथसे बांटी हुई ये तीनों मोपधियां क्षण क्षणमें ग्रहण करके अपनेको निरोगी कर ।।
इसके पश्चात् निष्पुण्यकने " स्वीकार है" ऐसा कहकर धर्मगोधकरके वचन अंगीकार किये और उसने भी तद्दयाको उसकी परिचारिका बना दी। तब निप्पुण्यकने अपने भिक्षापात्रको एक ओर रख दिया और उसकी रखवाली करते हुए वह कुछ समय तक वहीं रहा।
तदया वे तीनों औषधियां उसे निरन्तर देती थी, परन्तु वह अपने कुभोजनकी ममताके कारण उन औषधियोंका बिलकुल ही आदर नहीं करता था। अर्थात् उन औपधियोंपर उसका प्रेम नहीं था। इसके सिवाय मोहके कारण वह अपना कुभोजन बहुतसा खा लेता था, जिससे तद्दयाका दिया हुआ भोजन वह केवल उपदंशके समान (चाट सरीखा) सेवन करता था। अभिप्राय यह है कि जिस तरह मद्यपान करनेवाले मद्य पाकर ऊपरसे कुछ थोड़ी सी चाट खाते हैं, उप्ती प्रकारसे अपना कुभोजन कर चुकनेपर वह 'महाकल्याणक' को केवल चाटके समान खाता था-अधिक नहीं खाता था। उसका दिया हुआ अंजन भी वह कभी २ ही नेत्रोंमें आंजता था