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संसारमें सुख पानेका इसके सिवाय और कोई दूसरा कारण ही नहीं है । इसके सिवाय वह तेरे स्वाधीन रहती है-समीप रहती है, हम सरीखे तो सब दूर रहनेवाले हैं-तुझे वही सुखकी कारण है। इसलिये अपने सुखके लिये तुझे उसीका आराधन करना चाहिये।"
'दरिद्रीके स्वीकार करनेपर धर्मवोधकरने सदबुद्धिको उसकी परिचारिका बना दी और तबसे वह उसके विषयमें निश्चिन्त हो गया।
सद्बुद्धि जितने दिन निष्पुण्यकके पास रही, उतने दिनोंमें जो कुछ घटनाएं हुई, वे यहां कही जाती हैं:___ पहले तो वह अतिशय लोलुपताके कारण अपने कदन्नको खाता हुआ भी तृप्त नहीं होता था, परन्तु अब खाता है, पर बहुत नहीं खाता है और यह चिन्ता भी नहीं करता है कि, उसे कोई ले जायगा। पहलेका अभ्यास होनेके कारण यदि कभी कदन्नको खाता भी है, तो केवल तृप्तिके लिये खाता है और विशेप आसक्ति नहीं रहनेके कारण उसका स्वास्थ्य भी वह (कदन्न) नहीं बिगाड़ता है। पहले बड़े भारी आग्रहसे अर्थात् कहने सुननेसे वह उक्त तीन औषधियोंको ग्रहण करता था, परन्तु अब उसकी अभिलाषा उनके ग्रहण करनेमें स्वयं बलपूर्वक बढ़ती है। इस प्रकार अहित वस्तुओंमें ग्रहण न करनेके भावसे और हितरूप वस्तुओंमें जी लगानेसे उस समय उसकी जो दशा हुई, उसे कहते हैं, वे रोग जो हलके हो गये थे, अब शरीरको पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं और यदि कहीं कुछ पीड़ा होती है, तो वह भी शीघ्र दूर हो जाती है। अब उसने सुखके स्वादको जान लिया है, उसका जो घिनौना स्वरूप था, वह नष्ट होगया है और निराकुल होनेसे उसके चित्तमें बहुत बड़ा संतोष हुआ है।
एक दिन निष्पुण्यक एकान्तमें निराकुलतासे बैठा हुआ था । उस समय वह अतिशय प्रसन्नतासे सद्भद्धिके साथ बातचीत करने लगा