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शय दुर्लभ हो जायगी अर्थात् वह क्षीणता भी नहीं रहेगी। क्योंकि कदन्नका एक बार सर्वथा त्याग करके जो जीव फिर भी उसकी इच्छा करते हैं, वे महामोहके दोपसे रोगोंकी लघुता वा क्षीणताको भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये उत्तम पुरुषों को चाहिये कि अच्छी तरहसे विचार करके यदि चित्तमें मंचै, तो इसका सर्वथा त्याग करें।"
सद्बुद्धि के ये वचन सुनकर निप्पुण्यकका मन कुछ डोलने लगा । और अब मैं क्या करूं, इसका वह कुछ भी निश्चय नहीं
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कर सका ।
एक दिन दरिद्रीने बहुतसे 'महाकल्याणक भोजन' को खूब खा करके पीछे लीलासे थोड़ासा अपना कदन्न भी खाया । तत्र उत्तम भोजनके करने से जो तृप्ति होती है, उसके कारण, तथा सद्बुद्धिके समीप रहनेके कारण, और उसमें जो उत्तम गुण थे उनके कारण, उसके चित्तमें उस समय इस प्रकारका विचार हुआ कि, "अहो ! यह मेरा भोजन तो कुथित ( सड़ा हुआ ), अतिशय लज्जा उत्पन्न करनेवाला, मैला, घिनौना, विरस ( चलितरस ), निन्दनीय, और सब दोषोंका पात्र है। ऐसा बुरा है, तो भी इस परसे मेरी ममता दूर नहीं होती है ! परन्तु मैं समझना हूं कि, इसके छोड़े विना मुझे आकुलतारहित सुख नहीं मिल सकता है । यह यदि छोड़ दिया और कहीं पहलेकी लोलुपतासे इसका स्मरण हो आया, तो सद्बुद्धिने उस स्मृतिको भी दुखकी करनेवाली वतलाई है । और नहीं छोड़ता हूं, तो साक्षात् दुःखसागरमें हमेशा पड़े रहना पड़ेगा। इससे अब मैं क्या करूं? हाय मैं पापी और सत्वरहित हूं । अथवा अत्र इन मोहसे उत्पन्न हुए संकल्प विकल्पोंके करनेसे क्या ? अब तो इसे सर्वथा ही छोड़ दूं | जो होना होगा, सो होगा । अथवा इसमें होना