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है, अश्रान्त चित्तसे तत्वप्रीतिकर पानी पीता है, और नित्य महाकल्याण नामका भोजन करता है। इससे उसके शरीरमें वल, धृति (धीरज), शांति, कान्ति, ओज, प्रसन्नता, और इन्द्रियोंके ज्ञानकी पटुता (विपयग्रहणशक्ति) क्षणक्षणमें निरन्तर बढ़ती जाती है । यद्यपि पहले रोगोंकी सन्तति बहुत अधिक थी, इसलिये अभीतक उसे अच्छी तरहसे निरोगता प्राप्त नहीं हुई है, परन्तु उसके शरीरमें बड़ी भारी विशेपता दिखलाई देती है, अर्थात् पहलेकी अपेक्षा वह बहुत हृष्टपुष्ट तथा प्रफुल्लित जान पड़ता है । पहले जो प्रेत (पिशाच) सरीखा
और अतिशय घिनौने रूपवाला था, वही अव मनुष्य सरीखा दिखने लगा है । पहले दरिद्रावस्थामें तुच्छता, नपुंसकता, लोलुपता, शोक, मोह, भ्रम आदि जो २ भाव अभ्यस्त हो रहे थे, वे भी ऊपर कही हुई तीनों औपधियोंके सेवनसे नष्ट सरीखे हो जानेके कारण निरन्तर नहीं रहते हैं और इस कारण वे कुभाव अब उसे जरा भी दुखी नहीं करते हैं । वह प्रफुल्लितचित्त रहता है। .
एकदिन उस अतिशय प्रसन्न आत्मावाले सपुण्यकने सद्बुद्धिसे पूछा:-“हे भद्रे! मुझे ये तीन औषधियां किस कर्मके उदयसै प्राप्त हुई हैं?" उसने कहा:-" हे भाई! लोगोंमें ऐसी कहावत प्रचलित है कि जो पदार्थ पूर्वजन्ममें किसीको दिया है, वहीं इस जन्ममें प्राप्त होता है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि, तुमने भी ये पदार्थ पहले किसीको दिये होंगे।" यह सुनकर उसने विचार किया कि, "यदि दिया हुआ पदार्थ फिर मिलता है, तो मैं अब सब कल्याणोंकी करनेवाली और कभी क्षय नहीं होनेवाली ये औषधियां अच्छे पात्रोंको बहुतायतसे देने लगू; जिससे जन्मांतरमें ये मुझे फिरसे प्राप्त होवें।" उसको यह गर्व हुआ कि, मुझपर राजराजेश्वर सुस्थितकी दृष्टि