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यह देख धर्मवोधकर हर्षित हुआ, तद्दया आनन्दसे उन्मत्त हो गई, सद्बुद्धिका आनन्द बढ़ गया और सारा राजमन्दिर प्रसन्न हो गया। उस समय लोगोंमें यह चर्चा होने लगी कि, यह प्राणी जिसे सुस्थित महाराजने देखा था, धर्मवोधकरको जो प्यारा था, तद्दया जिसकी पालना करती थी, सद्बुद्धि जिसके पास रहती थी, और जो प्रतिदिन थोड़े थोड़े अपथ्यका त्याग करता था, तीनों औपधियोंका सेवन करनेसे सारे रोगों से बहुत करके मुक्त हो गया है । इस लिये अब यह वह निष्पुण्यक नहीं, किन्तु महात्मा सपुण्यक है। इसके पश्चात् उसी दिनसे उस पहलेके दरिद्रीका नाम सपुण्यक हो गया। यह सब पुण्यकी महिमा है । अन्यथा--
कुनः पुण्यविहीनानां सामग्री भवतीहशी। जन्मदारियभागू नैव चक्रवर्तित्वभाजनम् ॥४२१।।
जो पुरुष पुण्यहीन हैं, उन्हें ऐसी सामग्री कहांसे मिल सकती है ? जो जन्मके दरिद्री हैं, वे चक्रवर्ती कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते।
इसके पश्चात् तदयाके सम्बन्धसे सद्बुद्धि उस महात्मा सपुण्यक्रके साथ राजमन्दिरमें रहने लगी। अब आगे उसका (सपुण्यकका ) क्या हुआ, सो कहते हैं:--अपथ्यका (कदन्नका ) अभाव हो जानेसे अब उसके शरीरमें प्रगट पीड़ा नहीं होती है और यदि कभी पहलेके दोपसे होती है, तो बहुत कम होती है और थोड़े ही समय रहकर नष्ट हो जाती है। जिसकी इच्छाएं नष्ट हो गई हैं,
और जो लोकव्यापारमें शून्य बुद्धिवाला हो गया है, अर्थात् सांसारिक कामोंमें जिसकी बुद्धि नहीं रही है, वह महात्मा सपुण्यक अब प्रतिदिन अपने नेत्रोंमें अपने ही हाथोंसे विमलालोक अंजन आंजता