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पड़ गई है; धर्मवोधकरका मैं प्यारा हूं, तद्दया मेरा सत्कार करती है, सब लोग मेरी प्रशंसा करते हैं, और सद्बुद्धिका तो मैं बहुत ही प्यारा हूं, अतएव सपुण्यक हूं, और संसारमें सबसे श्रेष्ठ हूं। इसके पश्चात् वह ऐसा विचार करके कि, “यदि कोई मनुष्य आकर . मुझसे प्रार्थना करेगा, तो उसे मैं ये औषधियां दूंगा।" दान करनेकी इच्छा करता हुआ रहने लगा। ठीक ही है,
अत्यन्तं निर्गुणोऽप्यत्र महद्भिः कृतगौरवम् ।
नूनं संजायते गर्वी यथाऽयं द्रमकाधमः ॥ ४३८ ॥ अर्थात् किसी अतिशय निर्गुणी पुरुषका भी यदि बड़े पुरुष गौरव करते हैं, तो वह घमंडी हो जाता है जैसे कि, यह अधम दरिद्री। अभिप्राय यह है कि दरिद्रीके दान करनेके विचारकी राजराजेश्वर आदिने ज्यों ही प्रशंसा की, त्यों ही उसे गर्व हो गया कि, मैं सपुण्यक हूं और कोई मुझसे प्रार्थना करेगा, तो मैं उसे ये औषधियां दूंगा।
उस राजमन्दिरमें जितने लोग रहते थे; वे सब उक्त तीनों औषधियोंका सेवन करनेवाले थे और उन्हींके प्रभावसे सब प्रकारकी चिन्ताओंसे रहित होकर परमेश्वर हुए थे। और जिन्होंने उस राजमन्दिरमें तत्काल ही प्रवेश किया था, तथा जो इस निष्पुण्यकके समान ही निर्धन थे, वे अन्य लोगोंके पाससे इन औषधियोंको बहुत बहुत पाते थे। इसलिये सपुण्यकके पास कोई भी मनुष्य
औषधियोंके लिये नहीं आता था । सपुण्यक चारों ओर नजर फेंकता हुआ याचना करनेवालोंकी प्रतीक्षा करता था--राह देखता था।
जब इस प्रकारसे बहुत समय तक मार्ग देखते हुए रहनेपर भी कोई याचना करनेवाला नहीं मिला, तब उसने इसके लिये सद्-' बुद्धिसे फिर पूछा । उसने कहा:-हे भद्र ! तुझे बाहर निकलकर