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तदनन्तर निप्पुण्यकको उस ठीकरके भोजनकी ओर ही वारवार कृष्टि डालते देखकर और उसका अभिप्राय जानकर धर्मबोधकरने कहा, "अरे दुर्बुद्धि भिक्षुक ! क्या तू यही नहीं जानता है कि, तुझे यह कन्या परमान्नका (खीरका) भोजन देना चाहती है ? अपने घिनौने भोजनकी लोलुपताके कारण तू यह मेरा दिलाया हुआ अमृतके समान भोजन भी निराकुलतासे नहीं लेता है, इससे मैंने अच्छी तरहसे निश्चय कर लिया है कि, यद्यपि इस नगरमें और भी बहुतसे पापी भिखारी हैं, परन्तु तेरे समान अभागा और कोई नहीं है । हमारे इस राजमहलके वाहिर बहुतसे दुखी जीव रहते हैं, परन्तु उनपर हमारा आदरभाव नहीं है। क्योंकि उनकी ओर हमारे रानाने कभी नहीं देखा है। इस राजभवनको देखकर तेरे हृदयमें कुछ आनन्द उत्पन्न हुआ है, इससे जान पड़ता है कि तुझपर गनाकी दया हुई है । और ऐसा न्याय हैं कि, " पिये प्रियं सदा कुर्युः स्वामिनः सेवका इति ।" अर्थात् “जो स्वामीका प्यारा हो, उसपर सेवकोंको भी प्यार करना चाहिये।" सो उसकी पालना करने के लिये हम तुझपर दयाल हुए हैं। हमारा यह राजा 'अमूदलक्ष्य' है अर्थात् इसकी जांचमें कभी अन्तर नहीं पड़ता है। इसका लक्ष्य उसीपर जाता है, जो योग्य होता है । इसलिये यह अपनी बुद्धि अपात्रकी ओर कभी नहीं करता है, इसका हमको पूरा विश्वास है। परन्तु हमारे इस विश्वासको आन तू असत्य कर रहा है । जरासे घिनौने भोजनमें चित्तको उलझाकर कह तो सही कि, तू इस मीटे स्वादवाले और सारी व्याधियोंके नाश करनेवाले भोजनको क्यों नहीं ग्रहण करता है ? अव हे दुर्बुद्धि ! तूं इस बुरे भोजनको छोड़ दे और इस खीरको प्रीतिपूर्वक ग्रहण कर । इसके प्रसादसे देख इस राजमहलके सब जीव कैसे आनन्दित हो रहे हैं।"