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तत्त्वभावना
मार्ग पर सवारीको ले जाते हैं। पैदल चलते हुए अपनी आंखोंसे देखकर चलते हैं । तोभी आरंभी धावकसे बुहारी देते हुए, घरके काम करते हुए, माल उठाते धरते हुए, मकानादि बनवाते हुए बहुत अधिक जीवहिंसा हो जाती है। यहां इस श्लोक में मात्र चलते समय जो हिंसा होती है उसीकी मुख्यता है । हिंसासे लगे हुए पाप-रसको घटानेका विचार ऐसे श्रावकभी करते हैं जिससे आगेके लिए उनके व्यवहारमें आंधक सावधाना हो जावे। जी मानव किसी कर्मको छोड़ नहीं सकता है परंतु निरंतर विचारता है कि यह कर्म छोड़ देने योग्य है वह कभी न कभी छोड़भी देगा व उसे कम करता जायगा, इसलिए हिसा त्यागकी भावना हरएक मुनि व श्रावकको करना उचित है। यह पाठ सर्व ही प्रकारके धर्मात्मा मुनि, आपिका, श्रावक व श्राविका द्वारा मनन करने योग्य है । हिंसा हुई हो तो उसनर पश्चात्ताप अहिंसा पालनमें सावधान करने वाला होता है।
मूल श्लोकानुसार छन्द गोता हे श्री जिनेन्द्र ! प्रमाव चित्त हो मार्ग को देखे विना। दश विश भ्रमण करते विराधे पंच विध अंतू धना। जो एक द्वै वय आदि इन्द्रिय दलमले छिनमिन किये। उलटे तथा पलटे मिलाए, पाप मिथ्या होंय ये ॥१॥
उत्थानिका-हमारा समय शुभ कार्यों में बीते ऐसी भावना करते हैं