Book Title: Tattvabhagana
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Bishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf

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Page 13
________________ तत्त्वभावना शार्दूलविक्रीडित छन्द एकति बिषीकवत्प्रभृतयो ये पंचधावस्थिताः । जीवाः संचरता मया दशदिशश्चित्तप्रभावात्मना ।। ते ध्यस्ता यदि लोलिता विघटिताः संघट्टिता मोरिताः । मार्गालोचनमोबिना जिन ! तदा मिथ्यास्तु मे दुष्कृतम् ॥१॥ अन्वयार्थ (जिन) है जिनेन्द्र ! (चित्तप्रमादात्मना) प्रभाद या आलस्य या असावधानता या कषाय सहित चित्तको करके (मार्गालोबन मोचिना) मार्ग या पथको देखना छोड़कर (दशदिश संचरता) पुर्वादि दश दिशामों में चलते हुए (मया) मेरे से (एक द्विविहृषीकवत्प्रभृतयः) एकेन्द्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, आदिक अर्थात् चौन्द्रिय व पंचेन्द्रिय (थे) जो (पंचधा) पांच प्रकार से (जीवाः) संसारो जोव (अवस्थिताः) शास्त्र में स्थापित किये गए हैं (ते) वे जोव (यदि) यदि (ध्वस्ता:) नाश किये गए हों (लोढिता:) उलट पुलट किये गए हों (विघटिताः) अलग अलग कर दिये गए हों (संघटिताः) मिला दिये गए हों (मोटिताः) पैरों से रौंदे गए हों (तदा) तो (मे) मेरा (दुष्कृतम्) यह पाप (मिथ्या) नाश (अस्तु) हो। भावार्थ-सामायिक करते समय पिछले किये गए पापों को याद करके प्रतिक्रमण या पश्चात्ताप इसीलिए किया जाता है कि जिसमें आगेके लिए उस पाप से बचा जावे। अहिसाबत की रक्षाके लिए यह आवश्यक है कि चार हाथ जमीन आगे देखकर चला जावे । मुनिगण महाव्रती होते हैं वे दिन के प्रकाश में प्राशुक रोंदो हुई जमीन पर ही चलते हैं और बड़ी भारी सावधानी रखते हैं कि मेरे द्वारा कोई छोटा-बड़ा वृक्षभी रोंदा न जावे, कोई छोटा

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