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30... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
यहाँ उपकरण के विषय में कुछ अधिक स्पष्टता आवश्यक है। वह यह है कि श्रमण को तीन कारणों से ही वस्त्र रखना कल्पता है। स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि मुनि लज्जा के लिए, लोकापवाद से बचने के लिए एवं परीषह से आत्मरक्षा के लिए वस्त्र धारण करें। 21 इसके सिवाय ममत्त्व या परिग्रह वृत्ति से वस्त्र का संग्रह नहीं करना चाहिए। संयम यात्रा में उपयोगी वस्त्र - पात्र आदि परिग्रह नहीं कहलाते हैं, क्योंकि जैसे साधना के लिए शरीर आवश्यक है, शरीर रक्षा के लिए भोजन आवश्यक है वैसे ही वस्त्र - पात्र भी आवश्यक है। नियमत: समर्थ साधु एक वस्त्र और अधिक से अधिक तीन वस्त्र ( चादर ) रख सकता है। इसी भाँति एक पात्र से लेकर तीन पात्र तक रख सकता है। साध्वियों के लिए अधिकतम चार वस्त्र और तीन पात्र रखने की मर्यादा है | 22
वस्त्र - पात्र कैसे हो, किस प्रकार के वस्त्रादि ग्रहण कर सकते हैं, इन्हें किस विधि से ग्रहण करना चाहिए? इस विषयक विस्तृत चर्चा आचारांगसूत्र में उपलब्ध होती है।
यहाँ हमारा तात्त्पर्य इतना ही है कि जितने वस्त्र - पात्र की मर्यादा है, उस मर्यादा से कम वस्त्र - पात्र रखना उपकरण द्रव्य ऊनोदरी तप है।
उपकरण ऊनोदरी मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए आवश्यक है। आज के फैशनेबल युग में सुन्दर व आकर्षक डिजायनों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है, वस्त्र संग्रह की प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ गयी है। इससे फिजूलखर्ची का भी मापतौल नहीं रह गया हैं । उसमें ऊनोदरी तप रामबाण दवा का कार्य करता है। इस तप के माध्यम से अनावश्यक परिग्रह का संकोचन कर समाज सुव्यवस्था
स्थापित की जा सकती है।
(ii) भक्तपान द्रव्य ऊनोदरी - खाने-पीने योग्य जितने भी पदार्थ हैं, उनकी संख्या एवं परिमाण निश्चित करना, भक्तपान द्रव्य ऊनोदरी तप कहलाता है।
जिस प्रकार साधु-साध्वियों के लिए एक से तीन या चार वस्त्र तथा तीन पात्र की मर्यादा है और गृहस्थ साधकों के लिए अपरिग्रह परिमाण व्रत की मर्यादा है, उसी प्रकार आहार के विषय में भी नियम संहिता है । साधारणतः पुरुषों के लिए बत्तीस ग्रास ( कवल) और स्त्रियों के लिए अट्ठाईस ग्रास का विधान है। इसी तरह नपुंसकों के लिए चौबीस कवल प्रमाण आहार माना गया