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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...61 उत्तराध्ययनसूत्र का प्रथम अध्ययन विनय से सम्बन्धित है। उसमें विनय का स्वरूप प्राय: अनुशासनात्मक है। गुर्वाज्ञानुसार वर्तन करना एक प्रकार का अनुशासन कहलाता है। सच्चे गुरु शिष्य हित के लिए कभी मधुर तो कभी कठोर वचन शिक्षा रूप में कहते रहते हैं तब विनीत शिष्य सोचता है95
जं मे बुद्धाणुसासंति, सीएण फरूसेण वा। मम लाभो त्ति पेहाए, पयओ तं पडिसुणे ।।
सद्गुरु का मधुर एवं कठोर अनुशासन मेरे लाभ के लिए ही है, इसलिए मुझे गुरुवाणी को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। इस अध्ययन में जगह-जगह पर कहा गया है ‘फरूसं पि अणुसासणं',96 'अणुसासिओ न कुप्पेज्जा'97 और भी।
विनय का नम्रता सूचक अर्थ तो जग प्रसिद्ध है। आगमों में विनीत का लक्षण बतलाते हुए स्पष्ट कहा गया है कि "नीयावित्ती अचवले" नीची वृत्ति रखना अर्थात नत होकर रहना चंचलता नहीं करना विनीतता है। आगम टीकाओं में 'विनय' शब्द की फलात्मक व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है-98
जम्हा विणयइ कम्मं, अट्ठविहं चातुरंत मुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ, विणउत्ति विलीनसंसारा ।। विनीयते- अपनीयतेऽनेन कर्मेति विनयः जिससे आठ प्रकार के कर्मों का अपनयन होता है, वह विनय है। प्रवचनसारोद्धार टीका में भी इसी तरह की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि99_ "विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः" क्लेश उत्पन्न कारक अष्ट कर्मों को जो दूर करता है, वह विनय है। सामान्यतया अभ्युत्थान करना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रुषा करना विनय कहलाता है।100 भाष्यकारों के मतानुसार विनयोपचार, निरभिमानता, गुरुजनपूजा, अर्हत आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना - ये सभी क्रियाएँ विनय है।101
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि विनय तो एक प्रकार का सद्व्यवहार है। इसे तप की श्रेणी में कैसे माना जाये? क्योंकि तप में शरीर व मन दोनों को साधना पड़ता है। विनय में इस तरह की कोई बात नहीं दिखती। दूसरे, गुरुओं के साथ नम्रतापूर्ण व्यवहार करना तो सामान्य शिष्टाचार है, फिर इसे तप की कोटि में कैसे रखा गया है?