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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य... 59 दोषों के सेवन से वह चारित्र से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है। जैसे- मनुष्य या पशु आदि की हत्या, शिष्य आदि की चोरी, ब्रह्मचर्य व्रत का भंग आदि मूल (विशिष्ट) दोष माने जाते हैं । इस भाँति के दोषों की शुद्धि हेतु पूर्व गृहीत चारित्र पर्याय का सर्वथा छेद कर फिर से महाव्रतों का आरोपण किया जाता है। 9. अनवस्थाप्य योग्य मुनि पद पर दुबारा से अवस्थित नहीं करना अनवस्थाप्य कहलाता है। जिस दोष की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त रूप में निर्धारित किया गया विशिष्ट तप जब तक न कर लिया जाये तब तक उस साधु का संघ से सम्बन्ध-विच्छेद रखना तथा उसे पुनः दीक्षा नहीं देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है।
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साधर्मिक साधु-साध्वियों की चोरी करना, अन्य तीर्थिक की चोरी करना, गृहस्थ की चोरी करना, परस्पर मारपीट करना आदि स्थितियों में साधु को यह प्रायश्चित्त दिया जाता है।
10. पारांचिक योग्य जिस महादोष की शुद्धि वेष और क्षेत्र का त्याग कर महातप करने से होती है वह पारांचिक प्रायश्चित्त है।
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छेद आगमों के अनुसार कषाय- दुष्ट, विषय- दुष्ट, महाप्रमादी, मद्यपायी, स्त्यानर्द्धि निद्रा में अकल्पनीय कर्मकारी, समलैंगिक विषयसेवी को यह प्रायश्चित्त आता है। 90
स्थानांगसूत्र के अनुसार गण में फूट डालने, फूट डालने की योजना बनाने, साधु आदि को मारने की भावना रखने, मुनियों के छिद्र-दोष आदि की तलाश करते रहने, बार-बार असंयम के स्थान रूप सावद्य अनुष्ठान की पूछताछ करते रहने पर पाराञ्चिक प्रायश्चित्त आता है। 91
इस तरह के दोषों की शुद्धि के लिए उसे छह महीने से लेकर बारह वर्ष तक स्वगण, साधुवेष एवं स्वक्षेत्र से पृथक् कर जिनकल्पी साधु की भाँति कठोर तपश्चर्या करने का दण्ड दिया जाता है। निर्धारित दण्ड की अवधि पूर्ण होने के पश्चात पुनः प्रव्रजित कर मुनिसंघ में सम्मिलित किया जा सकता है। मुनि जीवन में यह प्रायश्चित्त सबसे गुरुतर दोष के लिए दिया जाता है।
टीकाकारों का कहना है कि यह दसवाँ प्रायश्चित्त विशेष पराक्रमी आचार्य को ही दिया जाता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चित्त तक का एवं सामान्य