________________
तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...73 की जीवित समाधि है।" सतशास्त्रों के अध्ययन से जीवन चरम लक्ष्य तक पहुंच जाता है। नीतिवाक्य में इसे तीसरा नेत्र कहा गया है।140
भगवान महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि___ "सज्झाएवा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणो"
स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है तथा जन्मजन्मान्तरों में सञ्चित हुए कर्म नष्ट हो जाते हैं।141 स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण करता है।142 इससे अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होता है और शाश्वत सत्य का दर्शन होता है। चन्द्रप्रज्ञप्ति आगम में भी स्वाध्याय फल के सम्बन्ध में यही बात कही गयी है कि इससे अनेक भवों में सञ्चित दुष्कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं।143 ___ जैनागमों में तो स्वाध्याय को सबसे बड़ा तप बतलाते हुए इतना तक कहा है कि "न वि अस्थि न वि अ होही सज्झाय समं तवोकम्म" अर्थात स्वाध्याय स्वयं में एक अद्भुत तप है। इस तप की समानता करने वाला न अतीत में कोई तप हुआ है, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा।144
स्वाध्याय के पांच प्रकारों का महत्त्व दर्शाते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि वाचना से मुनि शिष्यों को श्रुत देने में प्रवृत्त होता है और श्रुतधर्म के अवलम्बन से संसार व कर्मों का अन्त करता है। पृच्छना नामक स्वाध्याय से जीव सूत्र, अर्थ और उन दोनों से सम्बन्धित सन्देहों का निराकरण करता है और कांक्षा मोहनीय कर्म का विनाश करता है। परावर्तना स्वाध्याय से यह आत्मा स्मृत को परिपक्व और विस्मृत को याद करता है तथा व्यञ्जनलब्धि को प्राप्त करता है। अनुप्रेक्षा स्वाध्याय से यह जीव कर्म के गाढ़ बन्धन को शिथिल करता है, दीर्घकालीन कर्म-स्थिति का अल्पीकरण करता है, तीव्र कर्म-विपाक मन्द हो जाते हैं, प्रदेश-परिमाण को न्यून करता है, असाता वेदनीय कर्म के उपचय का अभाव होता है और संसार घटता जाता है। धर्मकथा स्वाध्याय से जीव कर्मों को क्षीण करता हुआ प्रवचन की प्रभावना करता है और कल्याणकारी फल देने वाले कर्मों का अर्जन करता है।145
इससे भी बढ़कर मुनि जैसे-जैसे अपूर्व और अतिशय रसयुक्त श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे संवेग के नये-नये स्रोत उपलब्ध होते हैं, जिससे उसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है।146 दशवैकालिकसूत्र में विनय, श्रुत,