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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 133
सरस भोजन से विरत रखकर वश में किया जाता है। कायक्लेश में शारीरिक सुखों का त्याग करते हैं। इस प्रकार बाह्य तप इन्द्रिय निग्रह में अहं भूमिका निभाते हैं।
प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप के आसेवन से भी पाँचों इन्द्रियाँ संतुलित एवं मर्यादित अवस्था में स्थिर रहती हैं क्योंकि विनय, वैयावृत्य, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ इन्द्रिय निग्रह में ही संभव है।
यहाँ आधुनिक तर्कवादी यह कहते हैं कि इच्छाओं एवं इन्द्रियों पर निग्रह क्यों किया जाये? यह प्रगति में बाधक है अतः अव्यावहारिक और अनुपयुक्त है। इसके समाधान में भगवान महावीर कहते हैं कि यदि कैलाश पर्वत के समान सोने-चाँदी के असंख्य पर्वत हो जायें तो भी मनुष्य को सन्तोष नहीं होता क्योंकि इच्छाएँ आकाश की तरह अनन्त हैं । अतः शान्ति पूर्ण जीवन के लिए इन्द्रियों पर निग्रह और इच्छाओं पर नियन्त्रण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है और यह इन्द्रिय-निग्रह तप द्वारा ही सुसाध्य है।
मनोबल वर्धन की दृष्टि से तप की साधना केवल मनुष्य ही कर सकता है, अन्य प्राणियों के लिए सम्भव नहीं है क्योंकि तप में तपन होती है और यह तपन बाह्य न होकर आन्तरिक होती है। पशु-पक्षी प्राकृतिक उष्मा को सह लेते हैं पर अपनी भीतरी तपन को नहीं सह पाते हैं। इसका अर्थ यह है कि भीतरी तपन बड़ी उग्र होती है।
प्रश्न होता है कि जो ताप - संताप या दाह प्रदान करता हो ऐसे तप को क्यों धारण करना चाहिए ? मानवीय जीवन में उसकी क्या सार्थकता है ?
तप साधना का बहुत बड़ा अंग है। इससे तीन रूपों में साधना को बल मिलता है। जिस प्रकार अग्नि एक होने पर भी लकड़ी, कण्डा, भूसा आदि के संयोग से अलग-अलग कही जाती है उसी प्रकार तपस्या एक होने पर भी मन, वचन और कार्य के विभिन्न भेदों से सम्बन्धित होने के कारण कई प्रकार की कही जाती है। इस साधना का सबसे बड़ा लाभ मनोबल की प्राप्ति है।
आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन के दो रूप हैं- ज्ञात और अज्ञात । ज्ञात मन से अज्ञात मन की क्रिया अधिक सूक्ष्म होती है। साधक तपस्या के बल पर अज्ञात मन पर नियन्त्रण कर लेता है और शरीर तथा मन की नियामिका शक्ति को अधिकृत कर लेता है जिससे उसे वास्तविक चैतन्य की उपलब्धि होती है। यही तपस्या का लक्ष्य है।