Book Title: Tap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 261
________________ अध्याय-5 भारतीय परम्पराओं में प्रचलित व्रतों ( तपों) का सामान्य स्वरूप हिन्दू धर्म में तप को 'व्रत' की संज्ञा दी गई है। इस आधार पर यहाँ व्रत से तात्पर्य तप विशेष समझना चाहिए। इस परम्परा में अधिकांश व्रत पर्व के साथ जुड़े हुए हैं, इसलिए व्रत एवं पर्व दोनों शब्दों का प्रयोग किया जायेगा। सामान्यतया व्रत और पर्व हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन हैं। इनसे आनन्दोल्लास पूर्वक उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है। व्रताचरण से मनुष्य को आदर्श जीवन की योग्यता प्राप्त होती है। व्रतों से अन्तःकरण की शुद्धि के साथ-साथ बाह्य वातावरण में भी पवित्रता आती है और संकल्पशक्ति दृढ़ होती है। भौतिक दृष्टि से स्वास्थ्य में भी लाभ होता है तथा कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्ग जनित सभी प्रकार के पाप, उपपाप और महापाप आदि भी व्रतों से ही दूर होते हैं। हिन्दु परम्परा में व्रत दो प्रकार से किये जाते हैं - 1. निराहार रहकर (उपवासपूर्वक) और 2. एक बार संयमित आहार के द्वारा। इस परम्परा में मुख्य रूप से तीन प्रकार के व्रत माने गये हैं - 1. नित्य 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। 1. जो व्रत भगवान की प्रसन्नता के लिए निरन्तर कर्तव्य भाव से भक्ति पूर्वक किये जाते हैं जैसे- एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा आदि नित्यव्रत कहे जाते हैं। 2. जो व्रत किसी निमित्त से किये जाते हैं जैसे- पाप क्षय के निमित्त चान्द्रायण, प्राजापत्य आदि नैमित्तिक व्रत कहलाते हैं। 3. किसी विशेष कामनाओं को लेकर जो व्रत किये जाते हैं जैसेकन्याओं द्वारा वर प्राप्ति के लिए किये गये गौरीव्रत, वटसावित्री व्रत आदि काम्यव्रत कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त भी व्रतों के एक भुक्त, अयाचित, मितभुक और नक्त व्रत आदि कई भेद हैं।

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