Book Title: Tap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 285
________________ तपोयोग का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं तुलनात्मक अध्ययन...219 मूल हार्द यह है कि जिनप्रासाद चाहे कितना ही सुन्दर क्यों न हो, किन्तु जब तक उस पर कलश न चढ़े तब तक उस मन्दिर की शोभा द्विगुणित नहीं होती है, दूध चाहे कितना भी पौष्टिक क्यों न हो, किन्तु शक्कर के बिना उसकी मिठास में अभिवृद्धि नहीं होती है, ठीक उसी प्रकार से तप चाहे कितना सुन्दर एवं उत्कृष्ट क्यों न हो, किन्तु उद्यापन के बिना उसमें भव्यता नहीं आती है। उद्यापन के बिना तप जैसा उत्तम अनुष्ठान भी अधूरा है। वस्तु स्थिति यह है कि तप का उद्यापन बोधि बीज के अंकुर के समान है। उससे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तो तप निर्मल बनता है। जैन दर्शन में करना, करवाना और अनुमोदन करना - इन तीनों क्रियाओं को समान फलदाता माना गया है। कहा भी गया है"करण करावण ने अनुमोदन, सरखा फल निपजाया महावीर जिनेश्वर गायो।" तपस्वी यदि उजमणा करने में समर्थ नहीं है और करवाने में भी समर्थ नहीं है तो उसकी अनुमोदना अवश्य करनी चाहिए। अनुमोदना में कुछ भी द्रव्य व्यय नहीं होता, सिर्फ उस तरह के अध्यवसायों की भूमिका निर्मित करनी होती है। श्राद्धविधि और धर्मसंग्रहटीका में उद्यापन को श्रावक का जन्म कर्त्तव्य एवं वार्षिक कर्तव्य बतलाया गया है। उद्यापन हेतु गृहस्थ को प्रेरित करना सद्गुरु का लक्षण कहा गया है। भौतिक स्तर पर जीने वाले कुछ लोग उद्यापन आदि कार्यों एवं अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में खर्च को व्यर्थ तथा धन का अपव्यय मानते हैं। कुछ सामर्थ्यवान् न होने से तपस्या ही नहीं करते, कुछ दिखावे के लिए उद्यापन करते हैं। इनका सीधा सा जवाब यह है कि 'उजमणा' न धन खर्च ने के लिए किया जाता है और न ही लोक प्रदर्शन हेतु, यह तो व्रत समाप्ति का कार्य है जिसे तप को महिमा मण्डित एवं लोक विश्रुत करने के उद्देश्य से करते हैं। साथ ही जो बाह्य वैभव से सम्पन्न हो, धर्म के प्रति रुचिवन्त हो, तप के प्रति श्रद्धानिष्ठ हो, उसी के लिए यह आवश्यक माना गया है। हाँ! यदि कोई साधन सम्पन्न हो और तप करने की शक्ति वाला भी हो, उपरान्त तप या उद्यापन न करे तो उसे वीर्याचार का विराधक माना गया है। उद्यापनकर्ता को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि यदि कोई तप अथवा

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