Book Title: Tap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

Previous | Next

Page 280
________________ अध्याय-6 तपोयोग का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं तुलनात्मक अध्ययन तप साधना की आत्मा है, साधना की आधारभूमि है, साधना का ओज है। तप शून्य साधना खोखली है। साधना का विशाल प्रासाद तपस्या की ठोस बुनियाद पर ठहरा हुआ है। साधना प्रणाली, चाहे वह पूर्व में विकसित हुई हो या पश्चिम में, हमेशा तप से ओत-प्रोत रही है। कोई भी जीवन प्रणाली या साधना पद्धति तप शून्य नहीं हो सकती है। जहाँ तक भारतीय साधना पद्धतियों का प्रश्न है, उनमें से लगभग सभी का जन्म ‘तपस्या' की गोद में हुआ है। वे उसी में पली एवं विकसित हुई हैं। यहाँ तो भौतिकवादी अजित केस-कम्बलि और नियतिवादी गोशालक भी तप साधना में प्रवृत्त परिलक्षित होते हैं, फिर दूसरी विचार सरणियों में तो तप के महत्त्व पर शंका करने का प्रश्न ही नहीं उठता। हम जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं के आधार पर इस सम्बन्ध में चर्चा कर चुके हैं। तप साधना की ऐतिहासिक विकास-यात्रा यदि इस विषयक विस्तृत वर्णन अपेक्षित हो तो इसके क्रमिक विकास पर दृष्टिपात करना होगा। पौराणिक ग्रन्थों एवं जैन-बौद्ध आगमों में तपस्या का स्वरूप और ऐतिहासिक विकास उपलब्ध भी होता है। पं. सुखलालजी तप स्वरूप के ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध में लिखते हैं कि तप का स्वरूप स्थूल से सूक्ष्म की ओर क्रमश: विकसित होता गया है और उसके स्थूल-सूक्ष्म अनेक प्रकार साधकों ने अपनाये। तपो मार्ग को वैकासिक दृष्टि से चार भागों में बाँटा जा सकता है - 1. अवधूत साधना 2. तापस साधना 3. तपस्वी साधना और 4. योग साधना। इनमें क्रमश: तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, साधना देह-दमन से चित्तवृत्ति निरोध की ओर बढ़ती गयी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316