________________
194...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक यह व्रत एक सौ छब्बीस दिन में पूर्ण होता है। इस व्रत के प्रभाव से जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्राप्ति होती है।
35. दिव्यलक्षण पंक्ति व्रत - बत्तीस व्यञ्जन, चौंसठ कला और एक सौ आठ लक्षण इस प्रकार दो सौ चार लक्षणों की अपेक्षा इसमें से दो सौ चार उपवास एकान्तर से किये जाते हैं। यह तप चार सौ आठ दिन में पूर्ण होता है। इस व्रत के प्रभाव से जीव अत्यन्त महान होता है तथा इसके अत्यन्त श्रेष्ठ दिव्य लक्षणों की पंक्ति प्रकट होती है। ____36. धर्मचक्र व्रत - धर्मचक्र में हजार अराएँ होती हैं। उनमें प्रत्येक अरा की अपेक्षा एक उपवास लिया गया है, इसलिए इस व्रत में हजार उपवास एकान्तर पारणे से किये जाते हैं। इस व्रत के आदि और अन्त में एक-एक बेला करना आवश्यक है। यह व्रत दो हजार चार दिन में समाप्त होता है और इससे धर्मचक्र की प्राप्ति होती है।
37. परस्परकल्याणव्रत विधि - पाँच कल्याणकों के पाँच उपवास, आठ प्रातिहार्यों के आठ और चौंतीस अतिशयों के चौंतीस इस प्रकार कुल सैंतालीस उपवास को चौबीस बार गिनने पर जितनी संख्या सिद्ध हो उतने उपवास एकान्तर से समझना चाहिए। इसके प्रारम्भ में एक बेला और अन्त में एक तेला करना पड़ता है। यह व्रत दो हजार दो सौ छप्पन दिन में समाप्त होता है। ___ उक्त विधियों में जहाँ उपवास के लिए चतुर्थक शब्द आया है वहाँ एक उपवास, जहाँ षष्ठ शब्द आया है वहाँ दो उपवास और जहाँ अष्टम शब्द आया है वहाँ तीन उपवास समझना चाहिए। इसी प्रकार दसम आदि से लेकर छह मास पर्यन्त के उपवासों की संख्या जाननी चाहिए।
यदि जैन श्रुत साहित्य का अवलोकन करें तो आगम ग्रन्थों से अब तक अनेकविध तपों की चर्चा प्राप्त होती है। कई तप विधान आज भी प्रचलित है। चर्चित अध्याय दिगम्बर परम्परा में प्रचलित विविध तपों का वर्णन साधकों को तप मार्ग पर निरंतर एवं नियमित अग्रसर रखे एवं उन्हें एक नई दिशा प्रदान करें यही सदेच्छा हैं।