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जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...183 और जितने स्थान हों उतने पारणे जानने चाहिए। उनका क्रम यह है - एक उपवास पारणा, दो उपवास पारणा, तीन उपवास पारणा, चार उपवास पारणा, पाँच उपवास पारणा, पाँच उपवास पारणा, चार उपवास पारणा, तीन उपवास पारणा, दो उपवास पारणा और एक उपवास पारणा। इस प्रकार इसमें तीस उपवास और दस पारणे होते हैं। यह व्रत चालीस दिन में पूर्ण होता है।
____12. रत्नमुक्तावली व्रत - इस व्रत का यन्त्र बनाते समय एक ऐसा प्रस्तार बनायें जिसमें एक-एक का अन्तर देते हुए एक से लेकर पन्द्रह तक के अंक लिख सकें। उसके आगे एक-एक का अन्तर देकर सोलह लिखें और उसके आगे एक-एक का अन्तर देते हुए एक-एक कम कर अन्त में एक आ जाये वहाँ तक लिखें। इसमें प्रारम्भ में प्रथम अंक से दूसरा अंक लिखते समय बीच में और अन्त में दो से प्रथम अंक लिखते समय बीच में पनरुक्त होने के कारण एक का अन्तर नहीं दें। इस व्रत में सब अंकों का जोड़ करने पर दो सौ चौरासी उपवास और उनसठ पारणों में तीन सौ दिन लगते हैं। इसका फल रत्नत्रय की प्राप्ति है। इस तप में एक उपवास पारणा, दो उपवास पारणा, एक उपवास पारणा आदि होता है। ___13. कनकावली व्रत - इस व्रत यन्त्र में एक का अंक, दो का अंक, नौ बार तीन का अंक, फिर एक से लेकर सोलह तक के अंक, फिर चौंतीस बार तीन के अंक, सोलह से लेकर एक तक के अंक, नौ बार तीन के अंक तथा दो और एक का अंक लिखा जाता है। इस क्रम से चार सौ चौंतीस उपवास और चार सौ अट्ठासी पारणे करना कनकावली व्रत है। इस व्रत में कुल एक वर्ष, पाँच मास और बारह दिन लगते हैं। इस व्रत के फल से लौकान्तिक देव पद की प्राप्ति अथवा मोक्ष प्राप्त होता है। इस तप में एक उपवास पारणा, दो उपवास पारणा, तीन उपवास पारणा आदि होता है।
14. द्वितीय रत्नावली व्रत - इस व्रत यन्त्र में रत्नों के हार के समान एक प्रस्तार बनाकर बायीं ओर पहले बेला सूचक दो बिन्दुओं का एक द्विक लिखें, फिर दो बेलाओं के सूचक दो द्विक लिखें, फिर तीन बेलाओं के सूचक तीन द्विक लिखें, फिर चार बेलाओं के सूचक चार द्विक लिखें। इसके आगे एक उपवास का सूचक एक बिन्दु लिखें। उसके बाद दो उपवासों की सूचक दो बिन्दुएँ बराबर लिखें। तदनन्तर इसके आगे इसी प्रकार तीन आदि उपवासों के