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जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप - विधियाँ... 1
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को एक कवल एक ग्रास मात्र आहार लेता है । तदनन्तर द्वितीयादि तिथियों में एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ चतुर्दशी को चौदह कवल का आहार करता है । पूर्णिमा के दिन उपवास करता है फिर चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार एक-एक कवल घटाता हुआ चौदह, तेरह, बारह आदि कवलों का आहार लेता है और अन्त में अमावस्या को पुनः उपवास करता है। यह व्रत इकतीस दिन में पूर्ण होता है। इस व्रत के करने से यश प्राप्ति होती है ।
20. सप्तसप्तमतपो व्रत इसमें पहले दिन उपवास और उसके बाद एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए आठवें दिन सात मास का आहार लिया जाता है, फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। इसी प्रकार सात बार किया जाता है ।
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21. अष्टअष्टम, नवनवमादि व्रत सप्तसप्तम विधि के अनुसार अष्ट अष्टम, नव नवम, दश दशम, एकादश एकादश और द्वादश द्वादश आदि से लेकर द्वात्रिंशद् - द्वात्रिंशद् तक की विधि भी इसी प्रकार जानना चाहिए। जिस संख्या की विधि प्रारम्भ की जाये उसमें प्रथम दिन उपवास कर एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए उतने ग्रास तक आहार लेना चाहिए । फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए एक ग्रास तक आये और अन्तिम दिन का उपवास रखें। मनुष्य का स्वाभाविक भोजन बत्तीस ग्रास बतलाया है, अतः यह व्रत भी बत्तीस ग्रास तक ही सीमित रखा गया है। सप्त-सप्तम विधि का एक दूसरा क्रम यह भी है कि पहले दिन उपवास न कर क्रम से एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात कवल का आहार लें तथा जब एक दौर पूर्ण हो जाये तो यही क्रम फिर से करें। इस तरह सात बार इस क्रम के कर चुकने पर यह व्रत पूर्ण होता है। अष्ट- अष्टम आदि विधियों में भी यही क्रम जानना चाहिए। इनमें क्रमशः एक उपवास से प्रारम्भ कर एक-एक ग्रास बढ़ाते जाना चाहिए।
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22. आचाम्ल वर्धमान व्रत आचाम्ल वर्धमान विधि में पहले दिन उपवास करना चाहिए, दूसरे दिन एक बेर बराबर भोजन करें, तीसरे दिन दो बेर बराबर, चौथे दिन तीन बेर बराबर इस तरह एक-एक बेर बराबर बढ़ाते हुए ग्यारहवें दिन दस बेर बराबर भोजन करना चाहिए । फिर दश की संख्या आदि से लेकर एक-एक बेर बराबर घटाते हुए दसवें दिन एक बेर बराबर भोजन करना चाहिए और अन्त में एक उपवास करना चाहिए । इस व्रत के पूर्वार्ध के
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