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144...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
मन्त्रशक्ति से भी आकाश में उड़ान भरते हैं जबकि विद्याचारणलब्धि मन्त्र-तन्त्र एवं जन्मगत कारण से नहीं, अपितु तप के साथ विद्याभ्यास करने से प्राप्त होती है।
11. आशीविषलब्धि - आशी = दाढ़, विष = जहर अर्थात जिनकी दाढ़ों में भयंकर विष होता है उन्हें आशीविष कहा जाता है। प्रकारान्तर से जिनकी जीभ या मुख से निकली श्वास विष के समान अनिष्ट प्रभावकारी होती है, उन्हें आशीविष लब्धिवाला माना गया है।
आशीविष के दो भेद हैं - 1. कर्म आशीविष और 2. जाति आशीविष।
1. कर्म आशीविष - तप-चारित्र आदि अनुष्ठान के द्वारा जो विषयुक्त शक्ति प्राप्त होती है, उसे कर्म आशीविष कहा गया है। यह शक्ति साधना विशेष से प्राप्त होती है, इसलिए इसे लब्धिजन्य माना गया है। इस लब्धि वाला शाप आदि देकर दूसरों का नाश कर सकता है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति और प्रभाव होता है कि क्रोध में किसी को कह दे कि 'तेरा नाश हो' तो वह वाणी विष की तरह शीघ्र ही उसके प्राण हरण कर लेती है।
2. जाति आशीविष - आशीविष का यह दूसरा प्रकार लब्धिजन्य नहीं है, क्योंकि इसका सम्बन्ध जन्मगत- जातिगत स्वभाव से है जैसे- साँप, बिच्छु आदि में जातिगत विष होता है। इसीलिए कहा जाता है कि “साँप का बच्चा क्या छोटा क्या बड़ा" वह तो जन्मते ही विषधर होता है। जाति आशीविष चार प्रकार के होते हैं - 1. बिच्छु 2. मेंढ़क 3. साँप और 4. मनुष्य।
बिच्छु से मेढ़क, मेढ़क से साँप, साँप से मनुष्य का विष अधिक प्रबल होता है। स्थानांगसूत्र में इस विषयक विस्तृत वर्णन किया गया है।59 ___12. केवलीलब्धि - चार घाती कर्मों के क्षय से जो केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है, वह केवलीलब्धि है।
. 13. गणधरलब्धि - गण को धारण करने वाले, तीर्थङ्करों की अर्थ रूप वाणी को सूत्रबद्ध करने वाले एवं तीर्थङ्कर परमात्मा के प्रमुख शिष्य गणधर कहलाते हैं। अत: गणधर पद को प्राप्त करना गणधरलब्धि कहलाती है। . 14. पूर्वधरलब्धि - आगमिक टीकाओं में 'पूर्व' शब्द के अनेक अर्थ किये गये हैं। सामान्यत: तीर्थङ्कर परमात्मा द्वादशांगी का मूल आधारभूत जो सर्वप्रथम उपदेश गणधरों को देते हैं वह पूर्व कहलाता है। पूर्व की संख्या चौदह