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... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
तीसरा उल्लेखनीय यह है कि विधिमार्गप्रपा एक प्रामाणिक, सामाचारीबद्ध एवं सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें इससे पूर्ववर्ती ग्रन्थों में वर्णित सभी तप - विधियाँ भी समाविष्ट हैं। दूसरे, आचारदिनकर में इससे भी अधिक तप-विधियों का निरूपण है अत: यहाँ प्रमुख रूप से उक्त ग्रन्थों के आधार पर ही सभी तपों की आवश्यक चर्चा करेंगे। तप - विधियाँ
तप भारतीय साधना का प्राण तत्त्व है। जैसे शरीर में उष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है वैसे ही साधना में तप उसके मूल अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है। तप के बिना न निग्रह होता है न अभिग्रह होता है। केवल आहार का त्याग करना ही तप नहीं है वस्तुतः विषय-वासना और कषाय- कलुषित भावों का त्याग करना ही तप है। भोजन आदि का परित्याग बाह्य तप है तथा वासना आदि प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करना आभ्यन्तर तप कहलाता है । तप अन्तर्मानस में पल्लवित हुए या हो रहे विकारों को जलाकर भस्म कर देता है और साथ ही मिथ्यात्व आदि से आच्छादित अज्ञान रूपी अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिए तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है। तप एक ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्र छाया में साधना के अमृत फल प्राप्त होते रहते हैं।
पूर्वाचार्यों ने तप की महिमा का संगान करते हुए कहा है कि यद्दूरं यद्दूराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ।।
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( आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 334 ) जो वस्तु अत्यन्त दूर है, अत्यन्त दुस्साध्य है और कष्ट द्वारा आराधी जा सकती है वे सब वस्तुएँ तपश्चर्या द्वारा ही साध्य होती हैं, क्योंकि तपश्चर्या का प्रभाव दुरतिक्रम है अर्थात उसका उल्लंघन कोई कर नहीं सकता ।
इसी क्रम में आचार्य वर्धमानसूरि यह भी कहते हैं कि जो व्यक्ति शिवकुमार की तरह गृहस्थ आश्रम में रहकर भी तपस्या का आचरण करता है वह देव सभा में भी कान्ति, द्युति, महत्ता और स्फूर्ति को प्राप्त करने वाला (देव) होता है। जैसे- अग्नि के प्रचण्ड तप में तपने से जिसका वर्ण उज्ज्वलता को प्राप्त होता है ऐसा सुवर्ण सर्व धातुओं में विशिष्टता एवं श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, उसी प्रकार तप करने वाला मनुष्य सर्व मानवों में शिरोमणि एवं विशिष्टता प्राप्त करता है।
तप से समग्र कर्मों का भेदन तथा विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त होती