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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...149
7. प्राप्ति - इस सिद्धि से अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही अपने-अपने अंगोपांगों को इच्छित प्रदेश तक फैलाने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है। जैसे कि इस सिद्धि को प्राप्त करने वाला स्वयं की अंगुली से मेरूपर्वत के शिखर का अथवा चन्द्रमा का स्पर्श कर सकता है।
8. ईशिता - इस सिद्धि के प्रभाव से अपूर्व ऋद्धि को विस्तृत करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। स्पष्टार्थ है कि इस सिद्धि की प्राप्ति से सिद्धिप्रापक योगी चक्रवर्ती या इन्द्र सदृश ऋद्धि का विस्तार कर सकता है। कुछ विद्वानों की मान्यतानुसार सिद्धियाँ योग से प्राप्त होती हैं, परन्तु जैन आचार्यों ने तप की व्याख्या इतनी व्यापक की है कि उसमें योग विद्या का स्वत: समावेश हो जाता है।
(iii) नवनिधि की प्राप्ति- नौ प्रकार की निधियाँ तप से ही प्रकट होती हैं। यह नवनिधि नौ तरह के निधान के समान है। प्रवचनसारोद्धार की टीका में बताया गया है कि नवनिधियाँ शाश्वतकल्प की पुस्तकें हैं और उनमें सम्पूर्ण विश्व स्थिति का कथन किया गया है। इन निधियों को एक प्रकार से ज्ञान का खजाना समझना चाहिए। नवनिधि का सामान्य स्वरूप इस प्रकार है -
1. नैसर्पनिधि - इस निधि में ग्राम, आकर, नगर, पत्तन, द्रोणमुख, मडम्ब, गृह व आपण (बाजार) की रचना से सम्बन्धित व्याख्या है।
2. पाण्डुकनिधि - इस निधि में गणित, गीत, चौबीस प्रकार के धान्य के बीज तथा उनकी उत्पत्ति के प्रकार वर्णित हैं।
3. पिंगलनिधि - इस निधि सम्बन्धी कल्पों में पुरुष, स्त्री, हाथी, घोड़ा आदि के पहनने योग्य आभूषण बनाने की विधि बतायी गयी है।
4. सर्वरत्ननिधि - इस निधि में चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का वर्णन किया गया है।
5. महापद्मनिधि - इस निधि से सम्बन्धित कल्पों में वस्त्रों की उत्पत्ति, उनके प्रकार, वस्त्र धोने की रीति तथा सात धातुओं की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है।
6. कालनिधि - इस निधि में ज्योतिष ज्ञान, तीर्थङ्करों के वंश का कथन तथा सौ प्रकार के शिल्प का वर्णन किया गया है।
7. महाकालनिधि - इस निधि से सन्दर्भित कल्पों में सप्त धातु, उनके विविध भेद तथा उनकी उत्पत्तियों का वर्णन है।