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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...137 बधाई दी। यह शुभ संवाद सुनकर भरत प्रसन्नता से झूम उठे। उन्होंने बधाई सन्देशवाहक को बहत सा प्रीतिदान दिया, फिर चक्ररत्न की पूजा की, पश्चात चक्ररत्न के अधिष्ठायक देव को प्रसन्न करने के लिए पौषधशाला में आकर तीन दिन का निर्जल तप (तेला) करके मागध तीर्थ नामक देव को प्रसन्न किया।45
चक्रवर्ती की भाँति वासुदेव और बलदेव भी असीम सुख के भोक्ता होते हैं। वासुदेव के पास तीन खण्ड की राज्य लक्ष्मी होती है, फिर भी अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए उन्हें विशेष सहयोग एवं दिव्य बल की आवश्यकता होती है। उस दिव्य बल को पाने के लिए ये भी तपाराधना करते हैं तथा देवता को प्रत्यक्ष कर अपने अभीष्ट को पूर्ण करते हैं।
कल्पसूत्रटीका में प्रसंग आता है कि जब पद्मनाभ राजा ने सौन्दर्य के वशीभूत होकर द्रौपदी का अपहरण कर लिया। तब उसे पुन: लौटा लाने के लिए वासुदेव श्रीकृष्ण अट्ठम तप कर लवणसमुद्र के अधिष्ठायक देव को जागृत करते हैं तथा दो लाख योजन विस्तृत समुद्र को पार करने हेतु सहयोग मांगते हैं। उस समय देव शक्ति से निर्विघ्नतया अमरकंका नगरी पहुंचकर द्रौपदी को ले आते हैं।
शास्त्रों में एक घटना यह भी वर्णित है कि एक बार माता देवकी के मन में पुत्र क्रीड़ा की इच्छा प्रगट होती है तब उस कामनापूर्ति हेतु श्रीकृष्ण अट्ठम (तेला) तप करके देवता को प्रसन्न करते हैं और एक भाई की याचना करते हैं। तप के परिणामस्वरूप गजसुकुमाल का जन्म होता है तथा देवकी की अभिलाषा पूर्ण होती है।
इस प्रकार प्रत्येक कठिन कार्य की सिद्धि एवं भौतिक सुख की परिपूर्ति हेतु तपश्चरण का आलम्बन लिया जाता रहा है। किसी भी दःसाध्य कार्य को तप के द्वारा सुसाध्य बनाया जाता रहा है। इस प्रकार तप के माध्यम से दुष्कर को सुकर, असम्भव को सम्भव और कठिन को सरल बनाया जा सकता है।46
देव सान्निध्य की दृष्टि से- श्रमणाचार का प्रतिपादक ग्रन्थ दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि "देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो" (1/1) जिस साधक का चित्त सदा धर्म में रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। यहाँ धर्म से तात्पर्य तप धर्म समझना चाहिए। वैसे भी इस सूत्र में अहिंसा, संयम और तप को धर्म बतलाया गया है। तपस्वी के तपोबल