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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...121 भगवान महावीर के जीवन का तलस्पर्शी अध्ययन किया जाये तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि वे तपो विज्ञान के एक अद्वितीय महापुरुष थे। उन्होंने अपने समय में प्रचलित देह दमन रूप बहिर्मुख तप को आभ्यन्तर तप के साथ जोड़ उसे व्यापक और आध्यात्मिक रूप प्रदान किया। __तप की मूल्यवत्ता को समझने के लिए यह कहना भी आवश्यक होगा कि भगवान महावीर ने स्वयं ही तप कर्म नहीं किया अपितु उनके शिष्य और शिष्याएँ भी उत्कृष्ट तप की साधना करती रही हैं। अन्तकृत्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा आदि आगम पृष्ठों पर धन्ना अणगार, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि, मेताराज मुनि जैसे- उग्र साधकों के तप की एक लम्बी सूची प्राप्त होती है।33 शेष बाईस तीर्थङ्कर भी छद्मस्थ अवस्था में तप साधना से जुड़े रहे हैं। यदि सभी तीर्थङ्करों के पूर्व भवों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि उन्होंने पूर्व भवों में महान् तपाराधनाएँ की थीं। बीस स्थानक तप की आराधना करने का उल्लेख तो सभी तीर्थङ्करों के लिए समान रूप से प्राप्त होता ही है। पूर्वाचार्यों एवं गीतार्थ मनियों ने इस बात की पुष्टि करते हए कहा है - "तीजे भव वर थानक तपकरी, जेणे बांध्यु जिन नाम" इसी प्रकार अन्य तपों का वर्णन भी पढ़ने को मिलता है जैसे कि आवश्यकनियुक्ति,34 आवश्यकचर्णि35 और समवायांगटीका36 के अनुसार भगवान महावीर के जीव ने नन्दनभव (25वाँ भव) में एक लाख वर्ष तक निरन्तर मासक्षमण की तपस्या की थी और उन मासक्षमणों की संख्या 11,60,000 थी।37 तप महत्त्व के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि सभी तीर्थङ्कर तप के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, उन्हें तप युक्त अवस्था में ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होती है तथा उन्हें निर्वाणपद की प्राप्ति भी तप कर्म के साथ ही होती है।
किस तीर्थङ्कर ने कौन से तप के साथ दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण को प्राप्त किया यह वर्णन भी स्पष्ट रूप से देखा जाता है। आगे तप विधियों में इसकी पर्याप्त चर्चा करेंगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैन धर्म में तपश्चरण की परम्परा अनादि, तीर्थङ्कर सेवित व अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित है।
तीर्थङ्कर की दृष्टि में- सामान्यतया श्रेष्ठता की पृथक्-पृथक् श्रेणियाँ होती है। जैनत्व की अपेक्षा इस दुनियाँ में तीर्थङ्कर पुरुष सर्वोत्कृष्ट श्रेणी में आते हैं, कोई भी व्यक्ति उनकी बाह्य या आभ्यन्तर शक्ति की तुलना में नहीं होता। हमसे