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130... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
उदय का परिणाम है। तपश्चर्या के आलम्बन से ज्ञानावरणीय व मोहनीय इन दो कर्मों को ही नहीं, सम्पूर्ण अष्ट कर्मों को नष्ट किया जा सकता है। इस वजह से भी श्रुतज्ञान की आराधना में तपोमय योगोद्वहन तथा उपधान क्रिया का आलम्बन इष्ट है।
यहाँ कुछ जन यह भी कहते हैं कि बहुत से श्रावक-श्राविकाएँ उपधान तप करते हैं, किन्तु उनका श्रुत ज्ञान वृद्धि (क्षयोपशम) को प्राप्त हुआ हो, ऐसा अनुभव में नहीं आता, इसका कारण क्या? उसका जवाब है कि यदि शास्त्र वर्णित अवधान विधि का यथार्थ आलम्बन अपनाया जाये तो तद्रूप परिणाम दिखता ही है। जैसे कि मीठा खाने से मुँह मीठा होता ही है, गुड़ खाने पर मुख मीठा न हो, यह कैसे हो सकता है ? अतः स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि तप साधना से श्रुत ज्ञान का विकास पूर्ण रूप से शक्य है।
उत्कृष्ट मंगल की दृष्टि से - जिस क्रिया से विघ्न का नाश हो और कल्याण की प्राप्ति हो उसे मंगल कहा जाता है। मंगल दो प्रकार का होता हैएक तो लौकिक व्यवहार में आने वाली कठिनाइयों को दूर कर भौतिक कल्याण करता है और दूसरा आत्म विकास में बाधक अप्रशस्त भावों को दूरकर परमानन्द की प्राप्ति करवाता है। इसमें प्रथम मंगल को द्रव्य मंगल कहा जाता है और दूसरे मंगल को भाव मंगल कहते हैं। तप साधना में दोनों ही मंगल समाहित हैं, इसलिए इसे सर्वश्रेष्ठ मंगल के रूप में गिना जाता है।
तप से विघ्न परम्परा दूर होती है। इस विषयक अनेकों उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर देखे जाते हैं जैसे कि आयंबिल तप के प्रभाव से श्रीपाल राजा का कुष्ठ रोग दूर हो गया । द्वैपायन ऋषि के श्राप से द्वारिका नगरी तब तक सुरक्षित रही, जब तक आयंबिल तप अखण्ड रूप से होते रहे।
तप को आदि मंगल माना गया है। जैन आगम साहित्य एवं आगमिक परम्परा का सम्यक् अवलोकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि अर्हद् संस्कृति में तप के स्वीकार पूर्वक ही श्रमणत्व जीवन अंगीकार किया जाता है। यानी मुमुक्षु जिस दिन चारित्र वेश धारण करता है उसे उस दिन उपवास या आयंबिल तप अवश्य करना होता है, बिना तप के यावज्जीवन का सामायिक व्रत और पंच महाव्रत का आरोपण नहीं करवाया जाता। जीत परम्परा के अनुसार आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तिनी आदि पदस्थापना के अवसर पर भी नवीन पदधारी